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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
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eta व्यक्ति को ब्याही थी । एक दिन पति को अनुपस्थिति में एक जैन साधू सुभद्रा के घर धाया । उसने विधपूर्वक उन्हें धाहार दिया। तभी साधु की यां में किरकिरी पड़ गई। उन्हें दुख में देख सुभद्रा ने वह किरकिरी अपनी जीभ के अग्रभाग से निकाल दी, जिससे साधू की प्रांख में पोड़ा न हो । ऐसा करते समय सुभद्रा का मस्तक साधू के मस्तक से छू गया और उसके माथे की बिंदिया का रंग साधू के माथे पर लग गया। तभी सुभद्रा का का पति भा गया । उसने कुछ और ही समझा । तथा सुभद्रा को लांछन लगा कर घर से बाहर निकाल दिया ।" प्रथा :--
पर्दा - जैन मारी पर्दे की दीवार में घिर कर कभी नही रही । यह उसकी अपनी मौलिक विशेषता है । जैन-सम्प्रदाय में हमेशा से समय-समय पर धार्मिक उत्सव होते श्राये हैं । जैन गृहस्थ पूरे परिवार के साथ इन उत्सवों में सम्मि लित होते हैं। नर-नारियों की सामुदायिक
उपस्थिति प्रत्येक धार्मिक सभाओं में एक सी होती है। जैन कथाओंों के प्राधार पर कहा जा सकता
कि जन-नारियां बेरोक-टोक जनसमुदाय में जाती थीं। अपने रिश्तेदारों और सखी-सहेलियों के यहाँ जाने की भी उन्हें छूट थी। राजा अपने पूरे अवरोधन के साथ जैन मुनियों के दर्शनार्थ जाया करते थे। रानियाँ, सेटानियाँ व कन्याएँ सबके सामने साधुयों से प्रश्न पूछती और व्रतादि ग्रहण करती थीं । २ गृहस्थ औरतें पतियों के साथ अथवा अकेले ही वन-बिहार को जाया करती थीं। अतः जैन नारियां पर्दे की प्रथा से प्रायः मुक्त थीं। गणिकाएँ:
गणिका अथवा वेश्या शब्द से भाज जो अर्थ साधारणतया लगाया जाता है तथा उन्हें जिस हीन
१. नायाधम्म कहा २, पृष्ठ २२०-२३० २. व्यवहार भाष्य आदि
३. आदिपुराण पर्व ४ श्लोक ८६ ४. प्रादिपुराण पर्व १७ श्लोक ८६
प्रोर उपेक्षा की भावना से देखा जाता है. वह जैन संस्कृति के स्वरूप में कहीं देखने को नहीं मिलता। गरिएकाओं की स्थिति उस समय में अच्छी थी। वे समाज का एक प्रावश्यक अंग थीं। गणिकामों को मालिक माना गया है। भगवान ऋषभ देव की दीक्षा के समय द्वार पर वार योषितानों को मंगल द्रव्य लिए हुए खड़ा किया गया था।
गणिका का तात्पर्य एक उस गण (समूह) से या जो जनसमुदाय का नृत्यगानादि द्वारा मनोरंजन करता था। गणिकामों को रतिशास्त्र की प्राचार्याभों के रूप में स्वीकृत किया गया है । वे विदुषी, कला-सम्पन्न तथा मधुर गायिका होती थीं। जैन साहित्य में चम्पा नाम की एक गरिएका का बहुत उल्लेख मिलता है । वह चौसठ कलाचों में प्रवीण और अनन्य सुन्दरी थी। एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ वह एक रात के लेती थी। एक गणिका चित्रकला में इतनी प्रवीण थी कि उसके यहां सहज नागरिक का पहुँचना कठिन था । कला पारखी ही उसके यहाँ जा पाते थे। क्योंकि वह उनकी रुचि के अनुसार ही उनका स्वागत करती थी। चोला नाम की गणिका चार वेदों धौर अनेक लिपियों में उस समय नारी कितने धागे बढ़ी हुई थी। की जानकार थी। इससे स्पष्ट है, विविध कलापों
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इन गणिकाओं का जैन धर्म से भी बहुत सम्बन्ध रहा है। क्योंकि उनके यहाँ माने जाने वाले लोग प्रायः सेठ साहूकार ही होते थे, जो प्रक्सर जैन होते थे। वसन्त सेना धौर चारुदत्त की कथा जगत् प्रसिद्ध है। कुछ गणिकाएँ ऐसी भी थी जो मात्र किसी एक पुरुष को अपना शरीरार्पण करती थीं। पाटलिपुत्र की एक कोशा नाम की गणिका मारह वर्ष तक स्थूलभद्र के साथ रही। और जब वह
४. नायाथम्म कहा यादि
६. बृहत्कल्प भाष्य
७. नायाधम्म कहा ८ पृष्ठ १०८