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________________ जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप की जा सकती है । दूसरी बात यह है कि जैन नारी संस्कृति में पतिभक्ति के कुछ उदाहरण ऐसे मौजूद के समक्ष प्रायिका बन धर्म ध्यान में शेष जीवन हैं, जो बेजोड़ है। बिता देने का मार्ग प्रशस्त था। अतः उसे पति के विधवाविवाह की प्रथा न होने पर भी यदि साथ अपना जीवन होम कर देने की कोई प्रावश्य- कोई विधवा नारी निःसन्तान होती थी, उसके घर प्रतीत नहीं हुई। केवल महानिशीथ अन्य में का कार्यभार सम्हालने वाला कोई नहीं होता था एक राजकमारी का उल्लेख मिलता है जो सती होने तो वह अपने निकट-सम्बन्धियों में से किसी के लिये संकल्पबद्ध थी. किन्त परिवार के लोगों के साथ सहवास कर पत्र की प्राप्ति कर सकती द्वारा उसे बचा लिया गया था।' थी। किन्तु यह नियम सर्वमान्य नहीं था। जैनकथा अन्यों में एक उल्लेख ऐसा मिलता है जिसमें विधवा-विवाह-सती प्रथा को रोकने में एक सास ने अपनी चार विधवा बहुप्रों का किसी विधवा विवाह काफी सहायक होते हैं। जिन मज्ञात व्यक्ति को उनका देवर बतलाकर उससे जातियों में विधवानों के विवाह होते हैं उनमें सहवास कराया था। और वह व्यक्ति बारह वर्ष नारियां पति के साथ कम ही भस्म होती हैं । या तक उस घर में रहा। तदनन्तर चारों स्त्रियों से यों कहना चाहिये, जिस समाज में वैधम्य के एक एक पुत्र उत्पन्न होने के बाद चला गया। दारुण दुख को सुख में बदलने वाली संस्थाएं हैं इस कथानक को सार्वभौम नियम के रूप में नहीं वहां भी सती प्रथा नहीं पनप पाती। जैन नारी के माना जा सकता। लिए पुनः विवाह नहीं खुला था। उसे अपना सारा बहुपत्नित्व प्रथा : भारतीय संस्कृति के वैधव्य पति की स्मृति में ही बिताना पड़ता था । प्रत्येक युग की नारी ने पुरुषों की इस ज्यादती को उनके लिए फिर संसार में कोई सुख नहीं रह जाता सहा है। जन नारी कैसे छूट जाती ? उस समय था सिवा इसके कि वे अपना जीवन अध्यात्म की बहु पलित्व प्रतिष्ठा का सूचक था । महाराजा मोर लगायें। अतः विधवा विवाह जैन संस्कृति में। भरत राजा श्रेणिक भादि इसके उदाहरण हैं।" न के बराबर है। अनेक जगह इस प्रथा का विरोध बड़े पादमी की पहिचान उसके अवरोधन में दिन प्रति किया गया है। दिन वृद्धि के द्वारा होती थी। कुछ नारियां पुरुष जन विधवा नारियां अपना समस्त जीवन अपने विलासी जीवन के लिए एकत्र करते थे। कुछ तपश्चरण और धर्मध्यान में व्यतीत करती थीं। उन्हें उपहार स्वरूप प्राप्त होती थी। ध्यान रहे, ये धनश्री और लक्षणवती ऐसी विधवाएँ थी जिन्होंने सब नारियां निम्न कोटि को ही होती थीं । दासजिनदीक्षा लेकर सच्चे हृदय से समाज सेवा की दासियों की खुले माम विकी ने भी बहुपलित्व को थी। इस प्रसंग में राजुल की पति भक्ति को नहीं बढ़ावा दिया था। क्योंकि विसस्त्री चेटका के रूप मुलाया जा सकता। उसके सामने तो पहाड़ सी में उपभोग में ली जाती थी। जिन्दगी थी और उसका विधि से विवाह भी नहीं पुरुषों के अधिकार उस समय बड़े चढ़े थे। हो पाया था फिर भी उसने अपने मन-मंदिर के बोटी से छोटी बात पर भी वे पत्नी को घर से देवता के पथ का ही अनुसरण किया। प्रतः जैन निकाल देते थे। सुभद्रा नाम की एक स्त्री किसी १. महानिसीय पृष्ठ ४२ ५. उत्तराध्ययन १८, पृष्ठ २३९ २. महानिसीय पृष्ठ २४ ६. वसुमति चरित्र ३. धर्म परीक्षा श्लोक ११-१२-१३, ७. बधूपित्तस्त्रिपो०-प्राचार्य सोमदेव ४. पावश्यकरिण ८. मादिपुराण पर्व ४७
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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