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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
धर्मपरायणा: - धर्म-कर्म धौर व्रतानुष्ठान में नारी कभी पीछे नही रही है। अनेक शिला लेखों में जैन नारियों द्वारा बनवाये जाने वाले धनेक विशाल गगन चुम्बी मन्दिरों के निर्माण धीर उनकी पूजादि के लिए दिये गये दान का उल्लेख मिलता है । ई. पू. छठवीं शताब्दी में बेटक की रानी भद्रा, शतानी की पत्नी मृगावती, उदयन की भार्या वासवदत्ता, दशरथ की जाया सुप्रभा, प्रसेनजित को वल्लभा, मल्लिका तथा दार्धवाहन की श्रीमती प्रभया ने जैन मंदिरों का निर्माण कराया था ।" यह परम्परा १४-१५ वीं शताब्दी तक देखने को मिलती है। इस तरह हमें अनेक जैनधर्म की सेवा करने वाली धार्मिक महिलाभों का उल्लेख मिलता है।
कला विशारद :- प्राचीन नारी की बौद्धिक क्षमता हमें हर क्षेत्र में देखने को मिलती है। जैन नारियों का मूर्तिकला से भी बहुत सम्बन्ध रहा है । मथुरा की जैनमूर्तिकला, जो भारतीय मूर्तिकला की जननी है, में नारी का प्रपूर्व योगदान हैं । वर्तमान में प्राप्त अवशेषों में कम से कम पचास ऐसी नारियों के उल्लेख मिलते हैं जिन्होंने अपनी रुचि के अनुसार मंदिर, मूर्ति, गुफा, चरणवेदिका श्रादि बनवायी थीं । भाबू की मंदिर की जगत प्रसिद्ध वास्तुकला सेठानी अनुपमा की कलाप्रियता की निशानी है । ये समस्त कलाकृतियां हमारी बहुमूल्य थाती हैं। जब तक ये रहेंगी उन उदारचेता एवं कला-प्रेमी नारियों की मधुर स्मृति जागृत किये रहेंगी । २
वीरांगना : - प्राचीन जैन नारी एक चोर जहाँ सेवा की मूर्ति और धर्मपरायणा थीं वहां निर्भय और वीराङ्गना भी । पुराणों में ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्त्री ने पति की सेवा करते हुए उसके कार्यों में, राज्य के संरक्षण में
१. श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ४९१, प्रादि २. पं. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४६२
तथा युद्ध
के क्षेत्र में भी लड़कर पति को सहयोग दिया है। गंग नरेश के वीरयोद्धा 'वद्देग' ( विद्याधर) की पत्नि 'सावियवे' ने पति के साथ युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी। वह सीता, रेवती प्रादि जैसी जिनेन्द्रभक्तिन तथा धर्मपरायण भी थी । ३ 'जाक्कियव्वे' दूसरी साहसी धौर वीर नारी है जिसने पति के बाद राज काज सम्हाल कर राज्यशासन श्रीर जैन शासन दोनों की रक्षा की थी।
इस अवलोकन से ज्ञात होता है कि जैन नारी ने हमेशा अपना प्रादर्श जीवन faarने की कोfree की है। पुरुषों की भांति वह भी चहार दीवारी से बाहर निकल कर धारमसाधन और धर्मसाधन में रत हुई है । उसकी प्रपनी स्वतन्त्र सत्ता कायम थी। वह राधा आदि नारियों की तरह पुरुषों की अनुगामिनी मात्र बनकर नहीं रह गई । इसीलिए जैन नारियों का जीवन पुरुषों को भी प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। भाज की नारी यदि उससे कुछ न सीखे तो यह उसका दुर्भाग्य है ।
सामाजिक कुरीतियां और नारी
भारतीय संस्कृति का इतिहास बतलाता कि कोई भी समाज कितना ही अच्छा क्यों न रहा हो, कुछ न कुछ कुरीतियां उसमें अवश्य प्रविष्ट हो जाती हैं। जैन संस्कृति की नारी को भी इस प्रवरथा से गुजरना पड़ा है। किन्तु उसके ये कुछ दोष गुरणों की बाहुल्यता के कारण छिप जाते हैं ।
सती प्रथा - जैनागमों में सती प्रथा का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जैन नारी प्रबुद्ध और निर्भर थी । उसे यह डर नहीं था कि पति के बाद उसके शील पर कोई ग्रांच ग्रा सकती है। धौर न वह इस अन्ध विश्वास की शिकार थी कि पति के साथ जल जाने से ही उसके प्रति सच्ची भक्ति प्रदर्शित
३. चन्द्रगिरि पर्वत का शिलालेख नं. ६१ (१३९) ४. श्रवणबेलगोला शिलालेख नं. ४८६