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बाबू बोटेलाल जैन स्मृति अन्य ___सिद्धान्तार्थसार' का प्रशस्तिभाग त्रुटित है है। इसको लोकप्रियता का अनुमान इसीसे लगाया प्रतः यह कहना कठिन है कि उसके प्रणयन के बाद जा सकता है कि भारत के कोने-कोने में कवि का क्या सम्मान किया गया, किन्तु यह स्पष्ट जैन समाज इसका पाठ करती हुई मानन्द विभोर है कि 'सम्मत्तगुणरिणहाण कव्व' को परिसमाप्ति के हो उठती है । इसका महत्व गीता एवं बाइबिल से बाद कमलसिंह ने कवि को बहुत प्रकार से सम्मा- किसी भी प्रकार कम नहीं। "मेहेसर परिस" में नित किया था।'
कुल १३ सन्धियां एवं ३०४ कडवक हैं। इसमें महाकवि रइधू के दूसरे प्रेरक एवं मात्रयदाता कवि ने भरत चक्रवत्ति के सेनापति मेघेश्वर के थे श्री खेऊ साहू (खेमसिंह साहू), जिन्हें रइधू ने चरित का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है। दान देने वालों में राजा श्रेयांस की उपाधि दी है। काव्यकला की दृष्टि से यह रचना उच्चकोटि की साथ ही उसे पागमरस का रसिक', अग्रवाल कुल- है। कवि ने इसमें दुबई, गाहा, चामर, पत्ता, पररूपी कमलों के लिये चन्द्रमा,कलावतार, कवि- डिया, समामिका, मत्तगयंद प्रादि विविध छन्दों में संगी, एवं संगपति' जैसे विशेषणों से संयुक्त शृगार, वीर, वीभत्स, रौद्र एवं शान्त प्रादि रसों किया है। ये ऐंडिस गोत्र के थे तथा योगिनीपुर इनका की प्रसंगवश सुन्दर उद्भावनाएं की हैं। इसका निवास स्थान था। कवि ने खेऊ साहू की पाठ कथा-भाग परम्परा से प्राप्त होने पर भी कवि ने पीड़ियों का विस्तृत वितरण लिखा है। प्रथम अपनी नवीन होली तथा उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक पीढ़ी देदा साहू से प्रारम्भ होती है। उसमें खेऊ साहू प्रादि अलंकारों की योजना करके उसे काफी सरस छठवींपीढ़ी के थे । इन्होंने कवि को प्रेरित कर 'मेहेसर एवं माकर्षक बना दिया है । चरिउ' (मेघेश्वर चरित) एवं 'पासणाह परिउ'' (पार्श्वनाथ चरित) जैसे महाकाव्यों का प्रणयन खेऊ साहू की अनुनय-विनय पर जब रइधू ने कराया था। खेऊ के चतुर्थ पुत्र होनु साह ने कवि पासणाह परिउ के प्रणयन की स्वीकृति दे दी तब को "दसलक्खरणजयमाल"" के लिखने की प्रेरणा घेऊ साहू का मानन्द देखते ही बनता है । वे मानन्द की थी। यह जयमाल अध्यात्मरस की अनुपम कृति विभोर हो नाचने लगते हैं और कवि की उक्त १-सम्मत्तगुणणिहाण कव्य ४ । ३४ । ११. २-पासणाह चरिउ ७1८।४. ३-पासणाह०१।५ । ११ ४-मेहेसरचरिउ १।१०।१. ५-मेहेसर०५।१ संस्कृत श्लोक. ६-मेहेसर०६।१ संस्कृत श्लोक. ७-पासरणाह. १।५।११ ८-मेहेसर० ७1८-१० १-इसका प्रपरनाम मादिपुराण है । यह ग्रंथ हस्तलिखित रूप में जैन सिद्धान्त भवन पारा में
सुरक्षित है। १०-यह प्रय हस्तलिखित रूप में राजस्थान जैन शास्त्र भण्डार जयपुर में सुरक्षित है। ११-जैन प्रथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई (१९२३) से प्राशित. १२--कडवकछन्द के उद्भव एवं विकाश पर भारतीय साहित्य संसद् पाराणसी (१९६५) से प्रकाशित
संसद् स्मारिका में मेरा विस्तृत निबन्ध पढिये ।