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________________ महाकवि रई युगीन अग्रवालों की साहित्य सेवा स्वीकृति को कल्पवृक्ष एवं कामधेनु की संज्ञा देते हुए कहते हैं शियगेहि उवम् कष्पस्वषु । तह फल को उधर ससुक्खु ॥ पुष्पेण पत्र जर कामधे । ht freates पुरy वि गयरेणु ॥ तह पर पुर महू कि सई पसाउ मह जम्मु सफलु मठ धन्न जाउ ॥ सह धष्णु जासु एरिस चित्तु । कश्यण गुरणु दुल्हू जेरण पत्त ॥ ( पासरणाह १।८।१-४.) कवि ने जब ७सन्धियों एवं १३८ कवकों बाले 'पासरगाह परि' को लिखकर समाप्त किया तथा उसे खेऊ साहू को सौंपा, तब वह हर्षातिरेक से गदगद हो उठे तथा द्वीप द्वीपान्तर से मंगवाए हुए विविष हीरा, मोती, वस्त्राभूषरण प्रादि को ससम्मान समर्पित किया। कवि ने लिखा है: संपुष्ण करेण्पिर पत् । वे साहू ग्रप्पिय सत्यु || दीनंतर भागय विविह वत्थु । पहिराविवि मसोहा परात्पु ॥ ग्राहरण सह मंडित पु पवित्त । इच्छादारों रंजियड पिल्लु || संतुटुड पंडित यि मम्मि प्रासीबाउ बिदिष्णउ खराम्मि || ( पासरणाह० ७|१०|३-८) महाकवि रहन के एक प्रनन्य भक्त हरसी साहू थे। उनकी तीव्र इच्छा थी कि उनका नाम चन्द्र विमान' में लिखा जाय 'रामचरित' (पपचरित) को बिना लिखवाये तथा उसका स्वाध्याय किये JE बिना उक्त लक्ष्य की पूर्ति सम्भव नहीं, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था । अतः वे कवि से साग्रह अनुरोध करते हैं कि उसके निमित्त वह 'रामचरित' की रचना अवश्य करदे, किन्तु उसे सुनकर कवि अपनी प्रसमता प्रकट करते हुए कहता है कि “भाई, 'रामचरित' का लिखना क्या ग्रासान बात है ? उसके लिखने के लिये महान साधना, क्षमता एवं शक्ति की भावश्यकता है । आप ही बताइये भला, कि घड़े में समुद्र को कोई भर सकता है ? साँप के सिर पर स्थित मरिण को कोई स्पर्श कर सकता है ? प्रज्ज्यलित पञ्चाग्नि में कोई अपना हाथ डाल सकता है ? बिना धागे के रत्नों की माला कोई ग्रंथ सकता है ? नहीं। ठीक इसी प्रकार बिना बुद्धि के इस विशाल रामकाव्य की रचना करने में मैं कैसे पार पा सकूंगा ?" इस प्रकार का उत्तर देकर कवि ने साहू की बात को सम्भवतः टाल देना चाहा, किन्तु साहू साहब बड़े चतुर थे। उन्होंने ऐसे मौके पर वणिक् बुद्धि से काम लिया। उन्होंने कवि को अपनी पूर्व मंत्री का स्मरण दिलाते हुए कहा- तु कम्यु पुरंधर दोसहारि । सत्यत्य ससु बहू विरणय धारि । करि कथ्यु चित परहरहि मित्त || तुह मुहि बिसइ सरसइ पवित्त ॥ ॥ ( बलहद्द० ११५१५- ६, ) अर्थात् कविवर धाप तो निर्दोष काव्य रचना में घुरन्धर हैं। शास्त्रार्थ प्रादि में कुशल हैं, विनयबान एवं उदारहृदय है। आपकी जिह्वा पर सरस्वती का वास है प्रत: इस काव्य की रचना अवश्य ही करने की कृपा कीजिये ।" अन्ततः कवि तैयार हो जाता है और 'रामचरित" की रचना प्रारम्भ कर देता है । १बल परि१।४ । १२. बह० १।४।१-४. ३- इस रचना के अपरनाम बलहृद चरित ( बलम चरित) एवं पउमचरिउ (पद्मचरित भी है । रकृत यह रचना प्रकाशित है और दिल्ली के चैन शास्त्र भण्डार में त्रुटित रूप में सुरक्षित है।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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