________________
१०८
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ हिन्दू मूर्तिकला के विकास को जानने तथा बुद्ध-मूर्तियों का श्रीगणेश विशेष रूप से पौराणिक देवी-देवताओं के मूर्ति- भारत में भगवान बुद्ध का पूजन कुषाण काल विज्ञान को समझने के लिए अज की कला में बड़ी से कई शताब्दी पहले पारम्भ हो चुका था, पर वह सामग्री उपलब्ध है । ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु को उनके चिन्हों की पूजा तक ही सीमित था । बुद्ध भनेक मूर्तियां ब्रज में मिलती हैं, जिनका समय ई० को मानव-मूर्ति का निर्माण नहीं हुआ था। शुग प्रथम शती से लेकर बारहवीं शती तक है । विष्णु काल के अंत तक हम यही स्थिति पाते हैं । सांची, की कई गुप्तकालीन प्रतिमाएं अत्यन्त कलापूर्ण हैं। भरहुत, बोधगया, सारनाथ भादि स्थानों से उस कण-बलराम की भी कई प्राचीन मूर्तियां मिली समय तक की जितनी बोट कला-कृतियां प्राप्त नई हैं । बलराम की सबसे पुरानी मूर्ति ई० पूर्व दूसरी है उन पर बोधि-वृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप, भिक्षापात्र शती की हैं, जिसमें वे हल और मूसल धारण किये मादि का ही पूजन दिखाया गया है। मूर्त रूप में दिखाये गये हैं । अन्य हिन्दू देवता, जिनकी मूर्तियाँ भगवान बुद्ध का पूजन कहीं नहीं हुआ । मथुरा से मथुरा कला में मिली हैं, कार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, भी अनेक प्राचीन मूर्तियां मिली हैं, जिन पर इन अग्नि, सूर्य, कामदेव, हनुमान प्रादि हैं । देवियों में चिन्हों का पूजन मिलता है। मथुरा में हिन्दुओं के लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, महिषमदिनी, सिंहवाहिनी, बलराम प्रादि देवों तथा जैन तीर्थकर की प्रतिमानों दुर्गा, सप्तमार्तृका, वसुधारा, गंगा-यमुना प्रादि के का निर्माण प्रारंभ हो चुका था। बौद्ध धर्मानुमर्त रूप मिले हैं। शिव तथा पार्वती के समन्वित यायियों में भी अपने देव को मानव रूप में देखने रूप अर्धनारीश्वर को भी कई प्रतिमाएं प्राप्त की उमंग उठनी स्वाभाविक ही थी। मथुरा के हुई हैं।
कुषाण-शासक मूति-निरिण के प्रेमी थे और उस समय
यहाँ भक्ति-प्रधान महायान धर्म प्रबल हो उठा जैन मूर्तियाँ
था। फलस्वरूप कुषाण काल में मथुरा के शिल्पियों ब्रज में प्राप्त जैन अवशेषों को तीन मुख्य भागों द्वारा भगवान् बुद्ध की मूर्ति का निर्माण हमा। में बाँटा जा सकता है: तीर्थकर प्रतिमाएं, देवियों इधर गंधार प्रदेश में भी बौदध मूर्तियां बड़ी संख्या
सीनीकरों में से में बनायी जाने लगी। मथुरा से प्राप्त बदध और सोनियों की कला में पल बोधिसत्व की प्रारंभिक प्रतिमायें प्रायः विशालनेमिनाथ की यक्षिणी प्रबिका तथा ऋषभनाथ की काय मिली हैं, जैसी फि यक्ष-मूर्तियाँ मिलती है। यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। कला के विकास के साथ ही मूर्तियाँ अधिक सुन्दर प्रायागपट्ट प्राय. वर्गाकार शिलापट्ट होते थे, जो बनने लगीं। मथुरा में गुप्तकाल में निर्मित पूजों में प्रयुक्त होते थे । उनपर तीर्थकर, स्तूप, बुद्ध को कुछ प्रतिमाओं में बाह्य सौन्दर्य के साथ स्वस्तिक, नंद्यावतं प्रादि पूजनीय चिन्ह उत्कीर्ण माध्यात्मिक गांभीर्य का अद्भुत समन्वय देखने को किये जाने थे। मथुरा संग्रहालय में एक सुन्दर मिलता है। प्रायागपट्ट है, जिसे उस पर लिखे हुए लेख के अनु- बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियों के अतिरिक्त सार लवणशोमिका नामक एक गरिणका की पुत्री मथुरा -कला में बुद्ध के पूर्व जन्मों की घटनायें भी वसु ने बनवाया था। इस प्रायागपट्ट पर एक अनेक शिलापट्टों पर चित्रित मिलती हैं, जिन्हें विशाल स्तूप का प्रकन है तथा वेदिकानों सहित जातक कहते हैं । बौद्ध धर्म के अनुसार बुद्ध तोरण द्वार बना है । मथुरा के कई उत्कृष्ट प्रायाग- होने के पहले भगवान् कई योनियों में विचरे थे। पट्ट लखनऊ संग्रहालय में हैं।
उन्हीं पूर्व जन्मों की कहानियाँ जातक-कथाएं हैं ।