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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा
गोकुल चन्द्र जैन, एम० ए०
प्राचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी
सोमदेवकृत यशस्तिलक (६५६ ई०) में भारतीय
तथा विदेशी वस्त्रों के अनेक उल्लेख हैं । इन उल्लेखों से एक पोर प्राचीन भारतीय वेशभूषा का पता चलता है, दूसरी धोर प्राचीन भारत के समृद्ध वस्त्रोद्योग एवं विदेशी व्यापारिक सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है। भारतीय साहित्य में वस्त्रों के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं । किन्तु यशस्तिलक के उल्लेखों की यह विशेषता है कि उनसे कई - एक वस्त्रों की सही पहचान पहली बार होती है । इन वस्त्रों को मुख्यतया दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. सामान्य वस्त्र
२. सिले हुए वस्त्र
सामान्य वस्त्रों में नेत्र, चीन, चित्रपटी, पटोल, रल्लिका, दुकूल, प्रांशुक और कौशेय आते हैं । पोशाकों में कंचुक, वारवारण, चौलक, चण्डानक. पट्टिका, कौपीन, वैकक्ष्यक, उत्तरीय, परिधान, उपसंख्यान, निपोल, उष्णीष, भावान, चोवर और कपट का उल्लेख है । कुछ अन्य गृहोपयोगी वस्त्रों में हंसतुलिका, उपधान, कन्था, नमत, वितान, चेलचोरी माये हैं. इन वस्त्रों का विशेष परिचय निम्न
प्रकार
चीन, चित्रपटी, पटोल और रल्लिका का उल्लेe for में एक साथ हुआ है । सभा
मण्डप में जाते समय सम्राट् यशोधर ने देखा कि घोड़ों को उक्त वस्त्रों की जोनें पहनाई गई हैं ।'
यशस्तिलक के उल्लेखों से इन वस्त्रों पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिए इनका सही परिचय सोमदेव के पूर्वानरकालीन साहित्य से प्राप्त करना होगा ।
नेत्र - श्रुतदेव ने नेत्र का अर्थ पतला पट्टकूल किया है। इससे अधिक जानकारी यश· तलक से से नहीं मिलती । नेत्र के विषय में डा० वासुदेव शरण अग्रवाल ने हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययनः तथा जायसी के 'पदमावत' में सर्वप्रथम विशेष रूप से प्रकाश डाला है। इसके पूर्व किसी भी हिन्दी या प्रग्रेजी ग्रन्थ में नेत्र का इतना विशद विवेचन नहीं किया गया। उसी सामग्री के प्राधार पर तंत्र का परिचय इस प्रकार है
नेत्र एक प्रकार का महीन रेशमी वस्त्र था । यह कई रंगों का होता था । इसके थानों में से काट कर तरह-तरह के वस्त्र बना लिये जाते थे ।
साहित्य में नेत्र का उल्लेख सबसे पहले कालीदास ने किया है । 3 बार ने नेत्र के बने विभिन्न प्रकार के वस्त्रों का कई बार उल्लेख किया है । मालती धुले हुए सफेद नेत्र का बना केंचुली की तरह हलका कंचुक पहने थी । हर्ष निर्मल जल से
१. नेत्रचीन चित्रपटीपटोलरल्लिकाद्या वृतदेहानां वाजिनाम्, यश० सं० पू० पू० ३६८ २. नेत्राणां सूक्ष्मपट्ट्कूलवारलानाम्, यशः सं० पू०, पृ० ३६८. सं० टीका ३. नेत्रक्रमेोपरुरोधसूर्यम्, रघुवंश ७/२६
४. starवलनेत्रनिमितेन निर्मोकलघुतरेणाप्रपदीन-कंचुकेन, हर्षचरित, पृ० ३१