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जैन समाज के आन्दोलन
स्वामी सत्यभक्त
हो तक जनसंख्या का सवाल है, इस देश की प्रान्दोलन और इनसे पैदा होने वाले भेद प्रब 'विशाल जन संख्या को देखते हुए जन जन चमक नहीं रहे हैं । गौण अवस्था में पहुँच गये हैं। संख्या बहुत छोटी है। माधा प्रतिशत भी नहीं।
हो । सोलहवीं शताब्दी में मुसलमानों के परन्तु साम्पतिक अवस्था, शिक्षा प्रादि में काफी
मूर्तिपूजा विरोध से प्रभावित होकर जो अान्दोलन महत्त्वपूर्ण है। हिन्दू समाज को सरह यह समाज भी विविध जातियों और सम्प्रदायों में बंटी हुई
हुए वे काफी प्रभावक और स्थायी बने । इससे
श्वेताम्बर जैन समाज दो विशाल संघों में बैट है। सौ से अधिक तो जातियां है । और प्रत्येक जाति के छोटे छोटे बहुत से प्रान्दोलन हैं जो कि
गया । मूर्ति पूजक और स्थानकवासी । मूर्ति
" पूजक लोग मूर्ति पूजा करते हैं और वीतराग की प्रायः विवाह के रीति रिवाजों को लेकर हैं। बड़े
मृति को भी अलंकारों से विभूषित करते हैं । स्पष्ट बड़े मान्दोलन धार्मिक विभाग की दृष्टि से बने हुए
ही उन पर वैष्णव सम्प्रदाय का पूरा प्रभाव है । कुछ विशाल जनसंख्या के क्षेत्र में हैं।
स्थानकवासी समाज ने मुसलिम प्रभाव में जैन समाज के धार्मिक दृष्टि से दो भेद हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर। ये दो भेद करीब दो प्राकर मूतिपूजा ही छोड़ दी। अब वे अपने हजार वर्ष पुराने है । इसका मतलब यह कि जैन
साधुनों की वन्दना करके और उनके दर्शनार्थ यात्रा समाज में दो हजार वर्ष पहले ही आन्दोलन शुरू।
करके अपनी मूर्तिपूजा की प्यास बुझा लेते हैं। हो गये थे। इसके बाद भी समय समय पर
स्थानकवासी समाज भी काफी संख्या में है और प्रान्दोलन होते रहे और समाज की शाखा प्रशाखाएं उसको जन संख्या ४-५ लाख तक पहुंच गई है। फूटती रहीं । दिगम्बर समाज में कुछ बातों को . दिगम्बरों में भी सोलहवीं शताब्दी में एक लेकर तेरापंथ बीसपंथ बने। मूर्ति को फूल मति पूजा विरोधी सम्प्रदाय तारण पंथ के नाम से चताना या न चढ़ाना, भट्टारक (जन महन्त) को खडा हवा। इसने मति हटादी परन्तु वेदी पर मानना या न मानना यही इस प्रान्दोलन का
शास्त्र विराजमान कर दिये और उसी से मुख्य विषय था। लकड़ी की मूर्ति बनाने तथा
दर्शन पूजा को प्यास बुझाई। पर यह संप्रदाय वह मूर्ति सूख कर फट न जाय इसलिये घी, दूध फैल न सका। दो हजार प्रादमी इस संप्रदाय में दही प्रादि चिकनी चीजों से अभिषेक करने प्रादि ।
होंगे। नाना तरह के प्रान्दोलन और उनसे पैदा को लेकर काष्ठा संघ बन गया । इस प्रकार होने वाले पंथ भेदों से जैन समाज का इतिहास दिगम्बर समाज कई भागों में बंटा । श्वेताम्बर भरा पड़ा है । परन्तु प्रब ये सब इतिहास की बातें समाज में भी अनेक मान्दोलनों से संघ भेद ।
हो गई हैं। हुए। परहन्त देव, शास्त्र और साघु के साथ शासन देवों की स्तुति नहीं करना इस बात को परन्तु इस युग में पिछले साठ-सत्तर वर्षों में लेकर त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय चमका । परन्तु ये सब भी काफी प्रान्दोलन हुए हैं। उनसे संघ भेद तो नहीं