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हिन्दी का आदिकाल और जैन - साहित्य
• डा० छविनाथ त्रिपाठी
हिन्दी साहित्य का श्रादिकाल सामान्य रूप से
दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक माना जाता है । इस काल के अनेक नाम हिन्दी के प्राचार्यो द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं। सबके पास तत्कालीन उपलब्ध सामग्री थी अपने तर्क थे। किसी ने उसे वीर गाथा काल कहा, किसी ने सिद्ध सामन्त काल और अब उसे उत्तर अपभ्रंश काल कहा जाता है । सर्व प्रथम पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने बताया कि विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश की प्रधानता रहीं और फिर वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गई। इसमें देशी की प्रधानता है. विभक्तियां घिस गई हैं, खिर गई हैं। एक ही विभक्ति 'हॅ' या 'प्रा' कई काम देने लगी ।' इसी विचार का समर्थन करते हुए प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल जिसे हिन्दी का आदि काल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है । इसी प्रपभ्रंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तर कालीन प्रपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी ।" 'बारहवीं शताब्दी तक निश्चित रूप से पश भाषा ही पुरानी हिन्दी के रूप में चलती थी, यद्यपि उसमें नये तत्सम शब्दों का प्रागमन शुरु हो गया था ।" 'बोलचाल की भाषा में तत्सम शब्दों का प्रचार बढ़ने लगा था, पर पद्य में अपभ्रंश का ही प्राधान्य था । इस लिये इस काल को पाश का बढ़ाव काल कहना ही उचित है । २
इन विचारों की अभिव्यक्ति के उपरान्त भी अनुसंधान कार्य चलता रहा है; अनेक ऐसी कृतियां १. द्रष्टव्य - हिन्दी साहित्य का भादि काल पृ० २२ २. बही - १० २४ ।
प्रकाश में आ चुकी हैं जो हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल के स्वरूप, नाम, भाषा आदि पर प्रचुर प्रकाश डालती हैं । प्राचार्य शुक्ल के समय पृथ्वीराज रासो बीसलदेव रासो, विद्यापति की पदावली तथा कुछ अन्य ऐसी रचनायें उपलब्ध थीं जो प्रपूर्ण और अर्ध प्रामाणिक थीं । प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस सूची में कुछ और वृद्धि की और संदेश रासक के महत्व पर प्रकाश डाला। इस काल के ग्रन्थों की सूची निरन्तर बढ़ती गई है और नये अनुसंधान के साथ साथ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है ।
हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल को प्रपभ्रंश का बढ़ाव मान लेने पर दसवीं से चोदहवीं शताब्दी तक की सम्पूर्ण कृतियों का, चाहे वे अपभ्रंश में हों या डिंगल में, प्राचीन गुजराती में हों या मैथिली में, विवेचन प्रपेक्षित है और यह निर्णय करना अधिकारी विद्वानों का कार्य है कि किन किन कृतियों को हिन्दी साहित्य के आदिकाल में समाविष्ट किया जा सकता है या किया जाना चाहिये । यह कार्य अभी शेष है और खेद की बात है कि इस पर कार्य नहीं हो रहा है ।
हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल की उपलब्ध सामग्री को पांच वर्गों में रखा जा सकता है - (१) नाथ पंथी और सिद्ध साहित्य (२) रासो और रास या रासक काव्य (३) उत्तर अपभ्रंश का जैन साहित्य (४) हिन्दी की उपभाषाओं का साहित्य तथा (५) प्राचीन गुजराती साहित्य ( यदि वे डिंगल या प्राचीन हिन्दी के समीप हों ) । इन वर्गों में से