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नाम था ।
कौशेय शहतूत की पत्ती खाकर कौवा बनाने वाले कीड़ों के रेशम से बनाए जाने वाले वस्त्र का ७६ देशी भाषा में अब इसका "कोशा" नाम शेष रह गया है। कोशा तैयार करने की वही पुरानी प्रक्रिया अब भी अपनाई जाती है। कौशा मंहगा, खूबसूरत तथा चिकना वस्त्र होता है महंगा होने के कारण जन साधारण इसका सदा उपयोग नहीं कर पाते, फिर भी विशेष अवसरों के लिए कौयो के वस्त्र बनवा कर रखते हैं। सुन्बेल खण्ड में अभी भी कोनो के साफे बांधने का रिवाज है।
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति मंच
कौशेय के विषय में कौटिल्य ने कुछ अधिक जानकारी दी है। अर्थशास्त्र में लिखा है कि पत्रो की तरह कौशेय की भी बार योनियां होती हैं अर्थात कौशेय के कीड़े नागवृक्ष, लिकुच, वकुल तथा वट के वृक्षों पर पाले जाते हैं धौर तदनुसार कौशेय भी चार प्रकार का होता है। नागवृक्ष पर पैदा किया गया पोतव, लकुचि पर पैदा किया गया रेहुधा रंग का वकुल पर पैदा किया गया सफेद तथा बट पर पैदा किया गया नवनीत के रंग का होता है। कौशेय चीन से भी प्राता था। ७७
२. सिले वस्त्र
कंचुकचुक एक प्रकार का कोट था, किन्तु सोमदेव ने चोली अर्थ में कंचुक का प्रयोग किया
७६. कौशेयः कौषलेन्द्रः यश० सं० पू० पृ० ४७० ७७. मोतीचन्द्र - भारतीय वेशभूषा, पृ० १५ ७८ नागवृक्षी लिकुचौ वकुलो वटवच यौनयाः वाकुली, शेषा नवनीतवर्णा । - तथा कौशेयं २, ११ । ७९. देखो - उद्धरण संख्या ७८
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है। "खेतों में जाती हुई कृषक वए कंचुक पहने थीं, जो कि उनके घटस्तनों के कारण फटे जा रहे थे। ७८
यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने कंचुक का अर्थ कूर्पासक किया है । ७०
दरबारा वारवारण का उल्लेख यशस्तिलक में अमृतमति के वर्णन के प्रसंग में धाया है। प्रमृतमति जब घण्टवक्र के साथ रति करके लौटी और जा कर यशोधर के साथ लेट गयी, उस समय जोर जोर से चल रहे उसके श्वासोच्छवास से उसका वारवारण कंपित हो रहा था । * श्रुतदेव ने वारवाण का अर्थ कंचुक किया है। 59 भ्रमरकोषकार ने भी कंचुक और वारवाण को एक माना है । ८२ किन्तु वास्तव में वारवाणु मंजुक की । तरह का हो कर भी कंचुक से भिन्न था। यह कंचुक की अपेक्षा कुछ कम लम्बा, घुटनों तक पहुँचाने वाला कोट था। डा० अग्रवाल ने इसका परिचय निम्न। प्रकार दिया है-
काबुल से लगभग २० मील उत्तर खेरखाना से चौथी शती की एक संगमरमर की मूर्ति मिली है । वह घुटने तक लम्बा कोट पहने हैं, जो वारबाग का रूप है। ठीक वैसा ही कोट पहने महिष्यता के खिलौनों में एक पुरुष मूर्ति मिनी है । ४
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पीतिका नागवृक्षिका, गोधूमबर्ग लौकुची, श्वेता चौनपटारच चीनभूमिजा व्याख्याताः । प्रर्थशास्त्र,
८०. कंचुकानि कूर्पासकाः, यश० सं० पू० पृ० १६ सं० टी० । ८१. निरुन्धाना चौत्कम्पोतालितवारवारणम्, यश० उत०, पृ० ५१
८२. बारवाणं कंचुकम्, वही, सं० ट० 1
८३. कंचुकी वारबाणों स्त्री, भ्रमरकोष, २, ८, ६४ १
८४. अग्रवाल हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १५०