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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
ऐसे प्रादर्श सात्विक वृत्ति वाले श्री रामजीवन दास जी के शिखर चन्द, फूलचन्द, गुलजारी लाल, दीनानाथ, छोटेलाल, नन्दलाल, लालचन्द मौर दुलीचन्द (जिनका १७ वर्ष की अवस्था में ही देहावसान हो गया था) नामक ८ पुत्र तथा रतन बाई एवं नानीबाई नामक दो पुत्रियां हुई। इस प्रकार अपने सहोदरों में श्री छोटेलाल जी का ५ वां
स्थान था ।
अब इन दस भाई बहनों में श्री नन्दलाल जी एवं दो बहनें ही जीवित हैं ।
बाबू जी का जन्म ७० वर्ष पूर्व १६ फरवरी सन् १८१६ तदनुसार फाल्गुन शुक्ला २ वि० सं० १९५२ को हुआ था। आप बचपन से ही अपने पिता जी के अधिक सम्पर्क में रहे थे। पिता जी के पास पाने वाले व्यापारियों एवं विद्वानों की चर्चा धाप रुचिपूर्वक सुना करते थे एवं कभी कभी माप चर्चा में भाग भी लेते थे । इन सबका परिणाम यह हुआ कि बाबू जी प्रारम्भ से ही सार्वजनिक व सामाजिक क्षेत्र में प्रभिरुचि लेने लगे। इस अभि रुचि ने ही इन्हें मूक सेवक बनने की प्रेरणा दी।
rivet प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय दिगम्बर जैन पाठशाला में हुई। यहां पं० कलावर जी ने पाप को अक्षराभ्यास कराया। चापके साथ ही कलकत्ता के सुप्रसिद्ध पं जयदेव जी भी पढ़ते थे । श्रापने मैट्रिक परीक्षा भी विशुद्धानन्द सरस्वती विद्यालय से पास की। तत्पश्चात् कालेज में पढ़ना जारी किया, किन्तु कुछ विशेष काररणों से प्राप प्रध्ययन छोड़कर व्यापार में लग गये ।
प्रापका विवाह १४-१५ वर्ष की अल्पायु में ही सेठ सेतसीदास जी अग्रवाल को सुपुत्री मूंदा बाई से हुआ था। पाप की धर्म पत्नी हमेशा पतिभक्ति को सर्वोच्चस्थान देती रहीं । बाबू जी के यहां प्रायः प्रतिथियों का नियमित रूप से आगमन होता रहता था। आप उनकी सेवा में उत्साह पूर्वक लगी रहती थी। प्राप १९३९ ई० में बीमार
हुई। यह बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती गयी। अनेकानेक उपचार किये गए किन्तु सफलता नहीं मिली। अन्त में १६-८-४० को वह काल-कवलित हो गई ।
बाबू जी १४-१५ वर्ष
की उम्र से ही सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे थे। वे कलकला सुप्रसिद्ध रथयात्रा की व्यवस्था हेतु स्वयंसेवक
रूप में भाग लेते थे । जिस समय का उपयोग निकों के पुत्र प्रायः खेल कूद, सिनेमा, नाटक प्रादि में व्यतीत कर दिया करते हैं उसी समय का उपयोग बाबू जी समाज हित में करते थे । मापने व्यवसाय से सन् १९५२ के दिसम्बर में ही निवृत्तिलेकी थी। सबसे आप अपना पूर्ण are साहित्य पुरातत्व एवं समाज सेवा में देने लगे। जब किसी सहा व्यक्ति के बीमार होने का समाचार मिलता तो बाबू जी के पिताश्री स्वयं जाकर उसकी सेवा सुश्रुषा की व्यवस्था करते थे, वे अपने अन्य पुत्रों के साथ बाबू जी को भी रोगो के पास ले जाते थे । आप की निस्वार्थ सेवा से रोगी अपनी बीमारी के सारे दुख भूल जाता था। पाप बीमार के मसमूत्रादि साफ करने में भी नहीं हिचकते थे।
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स्वर्गीय कुमार देवेन्द्र प्रसाद जी से बाबू जी का घनिष्ट सम्बन्ध था। कुमारवी जब भी कलकत्ता आते थे इन्हीं के यहां ठहरते थे । वे एक बार इनके घर पर बाकर बीमार पड़ गये। उनका वर बड़ता ही गया, जो अन्त में भयंकर वेचक के रूप में परिवर्तित हो गया। उनके सारे शरीर पर बेचक के दाग हो गए। बाबू जी व उनके भाइयों ने उनकी चिकित्सा विशेषज्ञों से कराई। किन्तु इस चिकित्सा से भी बढ कर बाबू जी ने उनकी जो परिचर्या की वह चिरस्मरणीय रहेगी। बाबू जी उनको लेटे-लेटे ही पाखाना और पेशाब करवा कर अपने हाथों फेंकते रहे और वैद्यों द्वारा रोग को पोर संक्रामक बताने पर भी उनकी सेवा वे ही नहीं उनके सारे भाई भी करते रहे। द्वारा से कुमार जी के भावा