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________________ बाबू जी का बीर सेवा मन्दिर को योगदान ने सन् १९५३ में अनेकान्त में लिखा था कि- "बाबू छोटेलाल जी से यद्यपि श्रार्थिक सहायता अभी तक माठ हजार से ऊपर ही प्राप्त हुई है परन्तु प्राप संस्था के प्रधान हैं-प्राण हैं, और आपका सबसे बड़ा हाथ इस संस्था के संचालन में रहा है । संस्थापक सदा ही आपके सत्परामर्शो की अपेक्षा रखता भाया है । संस्था को कितनो ही प्रार्थिक सहायता आपके निमित्त से तथा भापकी प्रेरणाओं से प्राप्त हुई है। आप सच्चे सक्रिय सहयोगी हैं और संस्था के विषय में आपके बहुत ही ऊंचे विचार है । हाल में आपने और आपके छोटे भाई नन्द लाल जी ने अपनी स्वर्गीया माताजी की ओर से वीर सेवा मन्दिर को एक जमीन दरियागंज देहली में अन्सारी रोड पर खरीदवा कर दी है। जिस पर बिल्डिंग बनने के लिये समाज का सहयोग खास तौर से वांछनीय है ।" बाबूजी ने बिल्डिंग के निर्माण में अच्छा सहयोग ही नहीं दिया किन्तु साहू शान्ति प्रसाद जी से उसके लिये अच्छी रकम भी दिलवाई। इतना ही नहीं अपनी शारीरिक अस्वस्थता का ध्यान न करते हुये भी ग्रीष्म ऋतु की चमचमाती धौर कड़कती धूप में बिल्डिंग निर्माणार्थ इन्जीनियरों धादि से उन्होंने परामर्म किया और स्वयं बैठ कर इच्छानुसार निर्माण कार्य कराया। गर्मी की इस भीषण तपन में जबकि प्रायः सभी धनिक वर्ग ठंडे और शीतल स्थानों (मसूरी भादि) में जाते है तब बाबूजी उन खुधों में बिना किसी स्वार्थ के वीर सेवा मन्दिर के भवन निर्माण में दलवित रहे। प्रापको यह महान सेवा सच्चे समाज सेवकों में सत्यय प्रदर्शन का काम करती है । इससे पाठक बाबूजी का वीर सेवा मन्दिर के प्रति होने वाला सहज निस्वार्थ प्रतुराग तथा सेवा का मूल्य ग्राँक सकते हैं। उनका यह महान सेवा कार्य यों ही भुलाया नहीं जा सकता । वह सध्ये सेवकों को प्रेरणादायक है, और रहेगा। वीर सेवा मन्दिर के कार्यों से समाज में जागृति और उत्साह का जो संवर्धन हुआ है, और जो शोध ४६ खोज को प्रश्रय मिला है उस सबका श्रेय बाबूजी को ही प्राप्त है। 'अनेकान्त' में बाबूजी का सहयोग वीर सेवा मन्दिर (समन्तभद्राश्रम) का मुखपत्र अनेकान्त है । उसका प्रकाशन सन् २६ में मुख्तार साहब ने करोल बाग दिल्ली से किया था। पत्र ने एक वर्ष के अल्प समय में ही अपनी रूपाति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। यह एक शोध-पत्र है. जिसमें साहित्यिक ऐतिहासिक दार्शनिक और तुलनात्मक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते हैं। एक वर्ष के पश्चात् अनेकान्त का प्रकाशन मकान की किल्लत और प्रार्थिक कठिनाई के कारण बन्द करना पड़ा । मौर समन्तभद्राश्रम को सरसावा ले जाना पड़ा। इसी बीच बाबू छोटेलालजी ने अनेकान्त का प्रकाशन बन्द हुआ जान कर मुख्तार साहब को एक पत्र लिखा था कि "मैं अनेकान्त के घाटे की कुल रकम ३६००) रुपया अपने पास से दे दूंगा, आप अनेकान्त का प्रकाशन स्थगित न करें, और अपने ऐतिहासिक कार्य में संलग्न रहें। मुझसे जितना भी बन सकेगा आपकी सेवा के लिए प्रस्तुत रहूंगा।" परन्तु मुस्तार साहब उस समय सरसावा में सेवा मन्दिर की बिल्डिंग का निर्माण करा रहे थे धतः उत्तर में लिखा कि में आपके इस सौजन्य के लिए आभारी हूं। अभी बिल्डिग के निर्माण कार्य में व्यस्त है । उसके बाद अनेकान्त निकालने का प्रयत्न करूंगा।" सन् १९४१ में अनेकान्त का पुनः प्रकाशन शुरू हो गया । यद्यपि उसे बीच में एक दो बार और भी मार्थिक कठिनाइयों के कारण कुछ समय के लिए बन्द करना पड़ा । परन्तु बाद में वह पुनः चालू हो गया । सन १९५७ में प्रार्थिक कठिनाई के कारण अनेकान्त का प्रकाशन बन्द करना पड़ा; और वह ५ वर्ष तक बराबर बन्द रहा। बाद में कुछ मित्रों की प्रेरणा से बाबूजी ने अार्थिक सहयोग दिला कर सन् ६२ में प्रकाशित किया। तब से प्रब तक उसका बराबर प्रकाशन हो रहा है। बाबूजी
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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