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________________ पुरातत्त्व वेत्ता श्री बाबू जी पं० नन्हेलाल शास्त्री, राजाखेड़ा सार में भाग्यशाली पुरुषों को ही प्राकर्षक प्रापको विद्वानों और धर्मात्मा पुरुषों से बहुत ही व्यक्तित्व प्राप्त होता है । हजारों व्यक्तियों में स्नेह था । उनकी मुख-मुविवानों का ध्यान रखना, अपनी प्रोजस्वी वाणी, प्रतिभा मोर प्रामाणिकता उनके सत्संग में अपना समय व्यतीत करना एवं के कारण जिस नररत्न का व्यक्तित्त्व चमकता हुमा उनके मान सम्मान का ध्यान रखना पाप का नजर आता है वह मनुष्य विशिष्ट, पुण्यशाली और स्वाभाविक कार्य था। भाग्यवान ही नहीं बल्कि सबका प्रादर्श होता है। जैन संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये श्रीमान बाबू छोटेलालजी अग्रवाल कलकत्ता प्रापने पुरातत्त्व विषयों की खोज की और उसमें से कौन परिचित नहीं है। प्रापका घराना कलकत्ता अपना अमूल्य समय लगाया । शारीरिक दशा कमजोर समाज में ही नही प्राय : सभी जैन समाज में होने पर भी प्रापने अपने गन्तव्य मार्ग को नहीं छोड़ा प्रसिद्ध है । इस परिवार ने लाखों का दान धर्मायतनों और अनेक विषयों में अच्छी सफलता प्राप्त की। एवं धर्म संस्थानों को समय समय पर दिया है। समय समय पर प्रापके इस विषय के लेख समाचार बाबू छोटेलाल जी ने भी अपने हाथों से कई संस्थानों पत्रों में निकलते रहते थे। वे इस कार्य के लिये सदा को भरपूर दान देकर खूब ख्याति प्राप्त की थी। प्रयत्न शील रहते थे और अन्न तक रहे। प्रापकी पाप जैन समाज के प्रमुख स्तम्भ थे। मूक सेवा, इस इस लगन की जितनी प्रशमा की जाय थोड़ी है। निर्भीकता एवं अदम्य उत्साह आपके व्यक्तित्व की अनेक दीन-दखियों, निराश्रित प्राणियों एवं प्रधान विशेषतायें थीं। प्रापका व्यक्तित्व लोगों के बहिनों को प्राथिक महायता देकर अपने पैसे का मस्तिष्क को कम परन्तु हृदय को अधिक प्रभावित सदुपयोग करना विरले जनों में ही होता है। बाबूजी करता था। की ऐसे कार्यों में भी दिलचस्पी थो । आपका हृदय धर्म या समाज के विषय में कठिन से कठिन बड़ा कोमल और दयालु था । यही कारण था कि उलझने उपस्थित होने पर उन्हें बड़ी कुशलता के अर्थविहीन दुखियों को दुख से विमुक्त करना पापका साथ निबटा देने में मापकी प्रखर बुद्धि जो कार्य करती थी वह देखते ही बनती थी । किसी विचारे जैन समाज और धर्म की सेवा करने में आपने हृये विषय में बाधायें आपको निराश नहीं कर जीवन अपंग कर दिया था। बाबूजी बड़े धैर्यवान सकती थी । जिस कार्य को करना सोच लेते थे उसे पुरुष थे। जैन धर्म के उत्थान के लिये एवं पुरातत्त्व करके छोड़ते थे। कार्यों की खोज और उन्हें प्रचार में लाने के लिये जिज्ञासा प्रवृत्ति भी प्राप में कूट-कूट कर भरी हुई प्रापके प्रयत्न भुलाये नहीं जा सकते। थी । ग्राम्यो देखो बात है । अनेक बार पयूषण पर्व मापके इन गुणों एवं उनकी सामाजिक, ऐतिमें मे कलकत्ता गया । उस समय जहाँ भी मेरा या हासिक एवं साहित्यिक सेवाप्रो के लिये समाज अन्य प्रागन्तुक विद्वानों का शास्त्र प्रवचन होता उनकी जितनी कृतज्ञता ज्ञापन करे थोड़ी है।. उसमे भाग लेना प्रापका सदा का कार्य रहता।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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