________________
बाबू छोटेलाल जी : मूक साधक
१५
भारतीय धग ऐसे नर रत्न सदैव उगलती रही देवा । कुछ वर्ष पूर्व मोहनजोदड़ो की खुदाइयों में है । ऐसे ही लोगों को प्राचीन युग में मन्त्र-दृष्टा प्राप्त शिव की मूर्तियाँ भगवान ऋषभदेव की मान कहा जाता था। उनके जैन विषयों मे सम्बन्धित ली गई। वे जैनों के प्रथम तीर्थकर है। बनारम निबन्ध यदि एक अोर अनुसन्धान परक है तो दूसरी विश्वविद्यालय के डॉ.प्राणनाथ ने उन मनियों पर पोर निष्पक्ष हृदय के द्योतक । वे बाबू छोटेलालजी 'जिनाय नमः' पढ़ा और उसी प्राधार पर उपयुक्त को उच्चकोटि का पुगतन्वज्ञ मानते थे। बम्बई के मान्यता चल पड़ी। बाबू छोटेलालजी ने उसका नेशनल म्यूजियग के चीफ क्यूरेटर डॉ. मोतीचन्द्र सप्रामाणिक खण्डन किया। मुझे जहाँ तक स्मरण तो यदि दिल्ली या कलकत्ता प्रायें और वहाँ बाबू है, उनके कथन को किसी ने नुनौती नहीं दी। छोटेलालजी हों तो उनमे अवश्य मिलते थे। डॉ० विद्वानों के मध्य बाबू छोटेलालजी के पुरातात्विक मोतीचन्द्र ने अनेक ग्रन्थो की रचना की है । हिन्दी निबन्धों को सदैव प्रतिष्ठा हुई है । सन् १९२३ में ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई से प्रकाशित उनका उनकी एक छोटी-सी पुस्तक 'जैन प्रतिमा-यंत्र लेख 'शृगार हाट' एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । प्राचीन संग्रह' कलकत्ता की 'पुरातत्त्वान्वेषिगणी परिपद' से पापागों में राजा यह 'शृगार हाट' भारतीय प्रकापित हुई थी। इसमें बाबूजी ने कलकत्ता के संस्कृति के मध्यरात्रि के बाजागे की कहानी है। मन्दिरों में विराजमान प्रतिमानों और यन्त्रों पर साहित्य और पुरातत्त्व का ऐमा अनूठा समन्वय बुदे लेखों का संकलन मोर सम्पादन किया था। अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। डॉ. मोतीचन्द्र भी इस विषय पर कार्य करने वालों को संस्कृत का माहित्य और पुरातत्व के समन्वित रूप है, माथ- ज्ञान अत्यावश्यक होता है । बाबूजी उसमें पीछे नहीं ही-साथ मानव प्रवृत्तियों के पारखी। उनकी श्रद्धा थे। इस पुस्तक ने अनेक विद्वानों का मार्ग दर्शन सम्ती नही हो सकती । जिसके प्रति मंजोयेंगे, वह किया। आज विविध पत्र-पत्रिकाओं में जो यंत्र और उनकी कसौटी पर पहले ही खरा उतर चुका होगा। प्रतिमा-लेख संग्रह प्रकाशित होते हैं, उनके पीछे बाव छोलालजी उनके श्रद्धास्पद थे ।
बाबूजी की प्रेरगा ही थी । उन्होंने पं० परमानन्द
शास्त्री को दिल्ली के मन्दिरों के मूत्ति और यन्त्र
पसी जान लेखों को संकलित कर अनेकान्त में प्रकाशित करने कुछ वर्ष पहले दिल्ली में एक विशाल जैन का आदेश दिया था। इस विषय में बाबूजी की तीव्र म्यूजियम स्थापित करने का आयोजन किया गया। कचि पोर वैज्ञानिक जानकारी सुविदित है। भारत के राष्ट्रपति के पद पर प्रासीन होते ही डॉ० राधाकृष्णन में उसके उद्घाटन की बात भी सोच सन् १९६२ में बाबूजी वीर-सेवा-मन्दिर में ली गई । भारतीय पुरातत्व के एक विशेषज्ञ, जिन्हें ठहरे थे । 'अनेकान्त' के पुनः प्रकाशन का विचार डायरेक्टर के रूप में नियुक्त किया था, राजस्थान उठा, तो प्रारम्भ कर दिया । किसी पत्र का और मध्यप्रदेदा में जैन पुगतान्विक सामग्री ले प्राये। निकालना प्रासान कार्य नहीं है और विशेषकर तब. उस सामग्री से सजे भवन का निरीक्षण करने पहुँचे जब वह एक शोध पत्र हो । बाबूजो ने अकेले ही, पाटोटेलालजी। मैने देखा कि उन्होंने एक-के- अस्वस्थ दशा में सब कुछ किया। सब कुछ का बाद-एक दम प्रशद्धियाँ बनाई, जिनका समाधान अर्थ है-अर्थ का प्रबन्ध, सामग्री का संकलन. डायरेक्टर महोदय न कर सके । मामग्री के सस्ते सम्पादन, प्रकाशन, प्रूफ-रोडिंग और फिर यथारूप को देख कर प्रायोजन रोक दिया गया । उस स्थान भेजना, ग्राहक बनाना, चन्दा इकट्ठा करना। समय मैंने बाबूजी के सूक्ष्मावलोकन को साक्षात् एक या दो अंक उपरान्त मुझे बुलाया। सचिन्त