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________________ बाबू जी का वीर सेवा मन्दिर को योगदान धार्मिक या साहित्यिक सेवा कार्य में खपा देते हैं। वे निस्पृह मूक समाज सेवक थे। उनकी भावना बड़ी उच्चकोटि की थी। उन्होंने थोर सेवा मन्दिर के अतिरिक्त जैन बालाश्रम धारा, स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस को भी अार्थिक सहयोग स्वयं प्रदान किया धीर कराया है। इतने सभी कार्यों को फरके भी बाबूजी ने कभी अपनी प्रसिद्धि नहीं पाही । यह सब कार्य उन्होंने निःस्पृह वृत्ति से सम्पन्न किये हैं जब उनसे विवाद मांगने गये तब उन्होंने 1 ५१ "आपने भाई फूलचन्द जी का चित्र मंगायासो मुस्तार साहब भाप जानते हैं हम लोग नाम से सदा दूर रहे हैं। चित्र तो उनका लगना चाहिए जो दान करें। हम लोग तो मात्र परिग्रह का प्रायश्चित-अधूरा ही करते हैं, फिर भी जरा जरा सी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं तो दम्भ श्रवश्य है । श्रस्तु क्षमा करें। श्रानको शायद याद होगा इन्हीं भाईसाहब को उत्साहित कर श्राराम (जैन बाला विश्राम) को तीस हजार दिनवाये थे और उस सहायता के सम्बन्ध में भाज तक मैने पत्रों में जिक तक न होने दिया। वास्तव में दान वही है जो बिना किसी विज्ञापन के दिया जाता है। उसी गात्विक दान का फल लोक में उत्तम बतलाया गया है।" । स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया । वे नामवरी मे कोनों दूर भागते थे। उनकी यह हि वृति उनके व्यक्तित्व की महना का द्योतक है । बाबुजी दान को मात्र परिग्रह का प्रायश्चिन मानते थे । परिग्रह में होती है उसके प्रायश्चित की भावना का बराबर बना रहना उनके विवेक और नाम का सूचक है। इस सम्बन्ध मे बाबू छोटे वीर सेवा मन्दिर को बाबू बोटेलाल जी की लालजी के मन् १९४१ के पत्र को निम्न पनि यही महत्वपूर्ण है और वह सदा इतिहास तौर से उसनीय है की उन्होंने मुस्तार गा० के नाम लिखी थी। उससे उनकी मानसिक विचारवारा का सहज ही पता चल जाता है एवं गाहित्य जगत में स्वरों में पति रहेंगी । समाज बाजी की मूल्यों के प्रति कृतज रहेगा | "संसार में क्यों इतनी खींचा तानी, बांधाबांधी और भले बुरे का विवाद चलता है। क्यों मनुष्य अपने चारों ओर बहुत सी भूलों और वचनों को जमा करके स्वेच्छा से अंधा बन रहा है। दारिद्रय का निष्ठुर दुःख, धर्म हीनता की गहरी ग्लानि थोर निर्बलता से उत्पन्न भीरुता में भी बद्द छलना और अभिमान का सामान हूँढ लेता है।" 展 拖 胎 sari आदमी की आवश्यकता आसानी से नहीं मिटती । - पाबूजी की डायरी से
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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