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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ खूब भक्ति की । छत्तीसवां चौमासा परबतसर फिर स्तोत्र, स्वोपज टीका, और गुजराती अनुवाद काव्यसोजत, केशवगढ व पुनः सोजत चौमासा किया। संग्रह द्वितीय भाग में ३८ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका फिर वरांटिय, लांबीया चौमासा करके संवत १७६३ है। स्वोपज्ञ टीका में भी धर्मसिंह ने अपने गुरू में कृष्णगढ़ चातुर्मास किया। मिती कातिक बदि ३ खेमकरण सम्बन्धी निम्नोक्त उल्लेख किया हैके दिन पूज्य श्री चिन्तामणि जी का स्वर्गवास “गुरू खेमकर्ण पादप्रसादमुदितः स्वयं शिक्षापितत्वात् हुआ।
स्वहस्तदीक्षाप्रदानात् स्वपदस्थापितत्वात्गुरुः-महान् संवत् १७६४ का चातुर्मास रेयांनगर करके गुरुर्मदीय धर्मोपदेष्टा श्री पूज्य: खेमकर्णाभिधेयः दिल्ली पधारे। श्रावक संघ प्रत्यन्त हर्षित हुअा। तेषां (तस्य)पाद प्रसादेन-चरणप्रभावेण मुदितो उन दिनों बादशाह का प्रतापी राज्य था। राज हषितः गरु खेमकर्ण पाद प्रसाद मुद्रितः, दरबार में श्रावक संघ का बड़ा मान सम्मान था। श्रीमद्गुरुपादानुग्रहप्रवृद्धहर्ष इत्यर्थः । अत्र खेमकर्ण अग्रवाल वंशज पुण्यात्मा श्रावक दीवान पद पर शब्दस्य श्रवण नक्षत्रस्य च चतुर्थपादे जन्मत्वान्मूर्धन्य सुशोमित थे । गुरु श्री समारोह पूर्वक स्वागत-सामेला षकारादिक उचित एवेति निर्गीय लिखीतोऽस्ति । लाहण प्रभावनादि खूब सत्कार्य हुए । पyषण पर्वा- अथवा ग्रामनाम्नोः संस्काराभावान्नात्र वितर्कः ।" राधना, लाहरण, संवत्सरी पारणादि से महिमा खेमकरण के शासनकाल में वर्तमान के शिष्य बढ़ी । संवत् १७६५ का चातुर्मास दिल्ली में पूर्ण ऋषि दीप ने गुगणकरण्डगुणावली चौपाई को रचना कर फाल्गुन तक यही विराजे । अन्त में अपना प्रायु संवत १७५७ की विजयादशमी को की। दीप कवि की शेष ज्ञात कर अन्तिम देशना देकर चौविहार अन्य दो रचनायें धर्मसिंह के धर्मशासन मे रची गई संथारा ग्रहण कर लिया। पाप पालोचना कर
प पालोचना कर हैं। एक पंचमी चौपाई दूसरी सुदर्शन सेट कवित्त । चौरासी लक्ष जीवा योनि से क्षमतक्षामणापूर्वक ये रचनायें बहत ही सुन्दर हैं। शील रक्षा भाग २ चार धड़ी का संथारा पूर्ण कर फाल्गुन बदि ८ में कई वर्ष पूर्व प्रकाशित भी हो चुकी हैं । इन दोनों शनिवार के दिन पूज्य गुरू श्री खेमकरण जी स्वर्ग- की हस्तलिखित प्रतियां हमारे संग्रह में है। वासी हुए। इस अनशन के अवसर पर दिल्ली के श्रावकों ने नाना उत्सव व ८४ गच्छ के साधुनों को जिस गुटके में चिन्तामरिण और खेमकरण प्रतिलाभ दिया । गुरु श्री को स्तवना सुप्रभ या पट्ट- संबंधो ऐतिहासिक रचनायें मिली हैं वह जयपुर के घर धर्मसिंध मूरि ने संवत् १७६६ श्रावण शुक्ला ७ ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में गुटका नं० सोमवार के दिन वयरणीय ग्राम चौमासा करके की। ६७ के रूप में है । इस गुटके में चिन्तामरिण भास, सदा इसे सुनने गुनने वाले संघ का जयजयकार हो। धर्मसिंह गीत तथा चिन्तामरिणरचित शीतल स्तवन
(सं १७१६ ) आदि रचनायें भी हैं। उपरोक्त रचना ( सारांश ) से स्पष्ट है कि . खेमकरण के बाद धर्मसिंह पट्टधर हुए। ये अच्छे धर्मसिंह गीत के अनुसार उनके पिता का नाम विद्वान थे। इनके रचित भक्तामर स्तोत्र के चतुर्थ नैणचन्द और माता का नाम राजुल दे था। धर्म पाद पूति रूप 'सरस्वती भक्तामर' स्वोपज्ञ टीका सिंह के बाद पट्टधर कौन बने और इनकी परम्परा सहित प्राप्त है। श्री पागमोदय समिति द्वारा यह कब तक चलती रही, अन्वेषणीय है।