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ज्योति-शिखा को अन्तिम प्रणाम
लक्ष्मीचन्द जैन
जनवरी १६६६ के तीसरे सप्ताह की बात है; देख लीजिए, क्या है।" मैं विचलित हो गया। बाबू छोटेलालजी बीमार थे और कलकत्त के मार- मैंने उन्हें प्राश्वस्त करने का प्रयत्न किया । 'भाई वाडी रिलीफ मोसायटी के हस्पताल में उपचारार्थ साहब, मापने इतना कुछ किया है अकेले, कि वे एक प्राइवेट कैबिन में लगभग अर्ध चैतन्य प्रापका कृतित्व सदा स्मरण रहेगा। पाप व्याकूल अवस्था में लेटे हा थे। मैं उमी शाम दिल्ली जा न हों। पाप जो बीज बो गये हैं. और पाल-पोस रहा था और जाने से पहले उनके दर्शन अवश्य कर गये हैं वह फूल दे रहा है। फन दे रहा है । प्राज लेना चाहता था। क्योंकि बीमारी उसरोत्तर बढ़ जैन साहित्य का प्रचार-प्रसार अधिक सुगम हो गया रही थी और कुछ ठिकाना नहीं था कि क्या हो है। साहित्य सृजन की अोर भी लोगों की रुचि हुई जाये। में पहुँचा तो कमरे में परिवार की केवल है। जैनेतर विद्वानों में जैन धर्म को जानने-समझने एक महिला ही थीं। भेट का वह समय भी नहीं की वास्तविक जिज्ञासा है। विरोध भाव प्रायः नहीं था कि भीड़भाड़ होती। बाबू छोटेलालजी प्रांखें है। इस सब में आपका विशेष हाथ है।" । बन्द किये पड़े थे। वेदना कितनी थो यह तो स्पष्ट मैं चाहता नहीं था कि बात लम्बी बढ़े और नही था किन्तु उसे सहन करने के प्रयत्न की छाप बाब छोटेलालजी को अधिक थकान हो। बीच-बीच मुस्ख पर अंकित थी। फिर भी चेहरे का भाव मुदु में उन्हें खासी भी उठ रही थी। मैंने कहा-"प्राज
और शान्त था। मैं पास की कुर्सी पर चुपचाप बैठ रात की गाड़ी से में दिल्ली जा रहा हूं। लौट कर गया। दो-चार मिनिट में ही उन्होंने प्राँखें खोली दर्शन करूंगा। तब तक प्रापकी तबियत भी काफी और मुझे देख कर अपना दुखदर्द भूल कर हर्ष से कुछ ठीक हो जायेगी ।" वे एक फीकी हंसी मुस्कगद्गत् दिखे और बोले-'पाप कितनी देर से बैठे हैं, राये । बोले-अच्छा प्रापको फिर देर हो रही होगी। मैं शायद सो रहा हूं, ऐसा प्रापको लगा होगा, प्राप जब प्रायेंगे तब"", देखिए।' मैंने पहलीबार लेकिन में मो नहीं पाता : प्रापको चाहिए था उनके चरण छये.."ौर अन्तिम बार। वे विचमुझे जगा लेते।' इतना कह कर उन्होंने पानी मांगा. लित हो गए...'पाप यह क्या कर रहे हैं ?' मे बात करने का उत्साह जितना प्राकुल था, दुर्बलता जल्दी-जल्दी जीने से उतर गया। लगा जैसे किसी उतनी ही मुखर । बोले-लक्ष्मीचन्दजी, जीवन का तीर्थ की वन्दना की हो, किसी साधु के चरण छुये कुछ भरोसा नहीं। कोशिश कर रहा हूं कि परि- हों; क्योंकि जीवन की अन्तिम सन्ध्या में वह महाणाम शान्त रहें और रोग का प्रभाव व्याकुल न पुरुष 'बाबू छोटेलाल' को संज्ञा से कहीं बहुत ऊपर करे। कितना कुछ काम करने को पड़ा रह गया; उठकर रोग-शैया को और रोग की वेदना की मेरे स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया और अब तो हालत सीमानों को पार करके निराकुल, निर्विकल्प ज्ञान