SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्योति-शिखा को अन्तिम प्रणाम और चिन्तन की दीप-शिखा सा उद्भासित था- करनी होती। उसमें से कुछ अंश पढ़ देते पौर पत्र- . स्नेह-तरल ! लेखक की समस्या को अपनी बना कर इस प्रकार जब पहली बार वीरशासन जयन्ती के अवसर प्रस्तुत करते कि जिससे जो कुछ बन पड़ता बह पर कलकत्ते में उनसे भेंट हुई थी तो अप्रत्यक्ष करने को तैयार हो जाता। स्वयं उन्होंने क्या-कुछ परिचय की श्रद्धा में प्रत्यक्ष साक्षात्कार की गहन कर दिया है यह वे प्रायः नहीं बताते-प्रात्मश्लाघा प्रात्मीयता प्रा-जडी थी। पहले से ही वे एक उनका गुण कभी भी नहीं रहा। कई बार मेरा 'लीजेंड' थे, 'एक पुरा-कथा के से पात्र।' जैसाहित्य मन होता कि जिस पत्र में से वह अंश पढ़ रहे हैं और जैन पुरातत्व के क्षेत्र में निष्ठापूर्वक काम वह पूरा पत्र में देख पाता क्योंकि उस प्रमक व्यक्ति करने वाले विद्वान और प्रेरक के रूप में उन्हें जाना न साहू शान्तिप्रसादजी को भी पत्र लिखा होता था. था । अब उनके प्राकर्षक व्यक्तित्व के अनेक ग्रायाम या कभी-कभी मुझे भी, और समस्या को किमी प्रत्यक्ष हुए। जिस किसी व्यक्ति में उन्हें ज्ञान की दूसर पहलू से प्रस्तुत किया होता-जो स्वाभाविक चमक या क्षमतानों की संभावना या कुछ भी प्रसा- भी था-; किन्तु पत्र मांगने में मुझे संकोच होता धारण-सा दिखा, उसे वे समस्त हृदय से अपना लेते। मोर उन्हें देने में। कारण दोनों भोर से समान थे। उनके इस अपनाने का अर्थ एक प्रोर तो होता था। होता-मैं जानना चाहता था कि इतने लम्बे पत्र अकृत्रिम स्नेह और दूसरी पोर एक विशेष प्रकार का में और क्या-क्या लिखा है जो समस्या के अन्य दायित्व-बोष कि बाय छोटेलालजी के संपर्क में में पहलुमों से संदर्भित है, और वे नहीं चाहते होते पहलुमा स सदाभत आने और उनका स्नेह पाने का अर्थ है उसके योग्य कि जिस व्यक्ति ने खुल कर अनेक-अनेक बातें अपनी बनने और बने रहने का प्रयत्न । वे यों तो इतने पराई लिखी है वे सब दूसरों तक पहुँचें। उनकी निरभिमानी और निःशल्य थे कि यदि कोई उनके इस महिमा की गहरी छाप मेरे मन पर पड़ी है। स्नेह से और उस स्नेह के अधिकार से मुक्त होना धी साहू शान्तिप्रसादजी की अनेक सामाजिकचाहे, उच्छं खल होना चाहे, या उपकार के प्रति साहित्यिक प्रवृत्तियों से सम्बन्धित होने का प्रर्थ मेरे अपकारी होना चाहे तो हो ले-कहीं कोई रुकावट लिए यह था कि बाबू छोटेलालजी का सतत सानिध्य नहीं थी। उनके पास कोई दंड-पाश था ही नहीं पाऊँ । ज्ञान और अनुभव के अनेक खाली कक्षों को सक्रिय विरोध भी नहीं था-एक सरल सी प्रतिकूल वे अपने व्यक्तित्व की समृद्धि से भरते थे। मेरा प्रतिक्रिया भी उन पर भारी पड़ती थी। सारी जैन यह सौभाग्य रहा है कि साहूजी ने मुझे निर्देशन समाज से उनके संपर्क थे। सब कोई अपनी समस्यायें भी दिया है और कार्य करने की स्वतंत्रता भी। कई बेझिझक उनके पास लिख भेजने थे-प्रधिकतर बार ऐसे अवसर भी प्राते थे जब किसी विपय या प्राथिक या व्यक्तिगत कटिनाई की या किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में, एक विशेष पृष्ठभूमि के माध्यम से अपना कोई काम साधने का अनुरोध । अाधार पर लिखा गया निर्णय बाबू छोटेलालजी इन सब चिन्तामों को वे अपने ऊपर प्रोढ़ लेते थे। की सम्मति के साथ मेल नहीं खाता था। विशेष उनका दफ्तर उनके साथ चलना था। बात करते. कारण यह होता था कि उनकी दृष्टि में सदा ही करते व जेब में हाथ डालते-एक लिफाफा निका. प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहानुभूति का प्रातरेक रहता लने जिममें ढेर सारी चिट्रियाँ होती। सब मिली- था अतः अनुशासन का व्यक्ति-निरपेक्ष रुख बे जुली और फिर धीरे-धीरे संभाल कर एक-एक बहुत कम समझना चाहते थे। यूबी यह कि अपने कागज बन्द का बन्द छाँटने जाते और कोई एक या विचार या अपनी असहमति प्रगट कर देने के बाद दो कागज निकाल लेते। जिनके बारे में उन्हें चर्चा सामूहिक निर्णय के साथ हो जाते थे। लेकिन
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy