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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
समूह
मुझे लगता है ऐसे अवसरों पर कर्तव्यों की द्विविधा में के निर्णय को मान्यता देते हुए भी वास्त विक सहानुभूति उनकी व्यक्ति के प्रति ही रहती थी। योजनायें उनकी बड़ी-बड़ी होती थीं क्योंकि न उत्साह की कमी होती थी, न साधनों की, न परिकल्पना के विवरणों को लगता था कि एक महत्व पूर्ण कदम उठा लिया गया, एक बहुत बड़ी बात होने वाली है, कदम ठीक दिशा में बढ़ रहे हैं किन्तु मंजिलें दूर रह जाती थीं. मादमी पीछे छूट जाते थे—गामी रहने थे तो केवल बाबू छोटेलालजो अपनी भावनाओं में सदा हरे-भरे । कारण कि उनका मन प्रकाश के महत् विस्तार में तैरता था लेकिन रोग जर्जर शरीर धरा पर उठाये गये पगों का संतुलन नहीं भान पाता था। रोग जितना ही
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प्राक्रामक होता, उससे जूझने का उनका पाग्रह
उतना हो प्रबल हो उठता और जब जीत रोग की होती तो स्वस्थ होने की प्रतीक्षा दूभर हो उठती और अधूरे कार्यक्रमों को स्वास्थ्य के अगले चरण में जल्दी से जल्दी पूरा कर लेने की व्यग्रता तन-मन को फिर झकझोर जाती । रोग की तीव्रता और कार्य कर डालने की व्यपता की होड़ का परिणाम होता अधिक रोग, अधिक दुर्बलता और यह क्रम चलता रहता । उनके कृतित्व के अनेक आयामों को चर्चा अभिनन्दन ग्रन्थ में होगी ही उस सबके, परिपेक्ष्य में मेरी पलों के सामने तैर जाती है जनवरी १९६६ की संध्याकी वह ज्योति शिखा जिसे मैंने श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया था और जिसके बालोक में स्नेह - सिक्त होने का सौभाग्य मुझे मिला था।
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