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हिन्दी का आदिकाल और जैन-साहित्य
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देता है जब कि वह सामान्य रूप से जैन मन्दिरों में रास भी छोटे चरित काव्य ही है जो रास के रूप रास का विरोध करता है ।' भरतेश्वर बाहुबलि- में प्रस्तुत किये गये हैं। घोर रास (वजसेन सूरि ) बुद्धि रास (शालिभद्र सूरि ), जीव दया रासु ( मासिग ), नेमिनाथ रास चरित और रास काव्यों का योग-. (सुमति गरिण), रेवंत गिरिरास (विजय सेन सूरि), चरित काव्यों की परम्परा प्राचीन काल से ही गयकुमार रास (देवेन्द्र सूरि), माबू रास (प्रज्ञात) चली मा रही थी। चरित नामधारी काव्यों के कच्छुली रास (प्रज्ञा तिलक ), स्थूल भद्र फाग लिखे जाने के पूर्व के सभी महाकाव्य, चरित काव्य (प्राचार्य जिनपदम), पंचपंडव चरित रास (शालि- ही है। प्रश्वघोष का बुद्ध चरित महाकाव्य भी है और भद्र सूरि), नेमिनाथ फाग ( राजशेखर मूरि), चरितनामधारी भी। जब कथा और पाख्यायिका गौतम स्वामी रास ( विनय प्रभ ), बसन्त विलास का प्रचलन हुआ तब 'हर्षचरित' जैसी कृतियों की फागु (प्रज्ञात) तथा चर्चरिका (प्रजात) प्रादिकाल रचना हुई। पपगुप्त का नव साहसांक चरित, के वे रास काव्य है जो मुख्यतः जन कवियों की क्षेमेन्द्र का दशावतार चरित, विल्हण का विक्रमाङ देन हैं और जिनकी परम्परा में ही पृथ्वीराज रासो, देव चरित, हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, जयानक वीसलदेव रासो तथा खुमान रासो मादि रचनायें का पृथ्वीराज विजय प्रादि चरित काव्य संस्कृत में प्रकाश में पाई हैं। इसी परंपरा में प्रब देव के भी लिखे गये । जैन परम्परा में त्रिषष्टि शलाका पुरुषों समरा रास की भी गणना की जा सकती है जो के चरित को काग्य का प्राधार बनाना एक अप्रत्यक्ष एक बन कवि की ही रचना है। इसमें संघपति निर्देश माना जाता था। इस लिये विस्तत पौरा. समरा का चरित वरिणत है।
णिक काव्यों से लेकर सामान्य जैन मुनियों के पृथ्वीराज रासों का संयोगिता स्वयंवर मास चरित तक संस्कृत प्राकृत और अपभ्रश में जैनचरित वध भौर पृथ्वीराज शहाबुद्दीन संघर्ष प्रसंग ऐति- काव्य प्रस्तुत किये गये । पउम चरउ, रिहणेमि हासिक मोर प्रामाणिक माना जाता है। प्रामाणि- महावीर चरिउ, पासनाह चरिउ, मनोरमा चरिय, कता का प्राधार इतिहास को बनाया जाता है पर प्रादिनाह चरिय, नेमीनाह चरिय, सुपासना चरिय इस बात की प्रचुर संभावना विद्यमान है कि सुरसुन्दरी चरिय, जसहर चारिउ, रणायपृथ्वीराज के चरित को प्राधार बनाकर छोटे छोटे कुमार चरिउ, बेवली चरिउ, संतिनाह चरिउ, रास काव्य लिखे गये होंगे और उनका एक स्थान पुहवीचंद चरिउ, रयणचूडराय चरिय, मुनि सुव्वय पर संकलन कर दिया गया होगा । ये रास काल्प- चरिय, सण कुमार चरिय प्रभृति सैंकड़ों चरित निक घटनामों को प्राश्रित कर लिखे जाने के कारण काव्य जैन मुनियों और कवियों द्वारा प्रस्तुत किये यदि इतिहास की कसौटी पर खरे नहीं उतरते तो गये । जहां प्राकृत भोर मपभ्रश के चरित काव्य इसमें उनका दोष ही क्या है ? वीर रसेतर रास बड़ी संख्या में लिखे जा रहे थे, वहां संस्कृत काव्यों काव्यों की उपस्थिति के कारण वीसलदेव रासो की रचना भी समानान्तर रूप से ही चल रही थी के सीमित चार खण्डों को भी पूर्ण माना जा सकता इन चरित काव्यों का उद्देश्य केवल काव्य कुशलता है। श्रृंगार परकता उसे रासो परम्परा से पृथक प्रदर्शित करना मात्र नहीं था, उनमें धार्मिक दृष्टि नहीं कर सकती। मयण रेहा रास, चन्दन बाला सन्निहित थी । उदाहरण के लिये महासेन को बहु
१. पम्मिय नाडय पर नच्चिजहि, भरह सगर निक्खमण कहिजहिं ।
पक्कबहि-बल-रायह चरियाई, मच्चिव अति हुति -पव्ययई । उ० रा० ३७ ॥