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से किसी भी दुःख कंपित को देखकर स्वयं काँपने लगते और उसकी अवश्य सहायता करना अपना कर्तव्य समझते। ऐसा जान पड़ता जैसे ये सारे ही पुनीत कार्य उनके जीवनव्रत बन गये हों। मैंने उन्हें जब कभी किसी युवक को उसके योग्य कोई काम दिलाने के लिए लिखा उन्होंने उसे काम दिलाफर ही ईन ली। मै समझता हूं कि वे मानव हित के लिए कभी थकान का अनुभव नहीं करते थे । रोग शय्या पर पड़े-पड़े भी वे जनहित के कार्यों में लगे रहते और प्रायः सफल भी होते ।
बाजो स्वतंत्र विचारक थे । रुढियों के गुलाम नहीं थे। वे युगानुमारी विचारधारा के कट्टर समर्थक थे। उनमे मादमी को ही नहीं उसकी लियाकत को परखने की भी क्षमता घो। यद्यपि वे मावक थे; किन्तु उस भावुकता का उपयोग दूसरों के उपकार के लिए ही होता था। उपकार की जहां प्रावश्यकता होतो वहीं उनकी क्षमता का उपयोग होता । मुझे उनकी दानवृत्ति के विषय में भी कुछ कहना है। मेरा खवाल है कि उनके दान में तामसिकता और राजसिकता की अपेक्षा सात्विकता की अधिक प्रेरणा होती थी। देश, काल और पात्रता का विचार करके ही बे दान में प्रवृत्त होते थे। उन्हें अपने दान का शोर कतई पसंद नहीं था। उन्होंने मुझे कई बार लिखा था कि उनको किसी भी उपकृति की खबर द्रमरों को न हो। इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसी मानव वृत्ति दुनियां में बहुत दुर्लभ है। वे लोकंषणा से सदा हो दूर रहना चहते थे। मैने चाहा कि बाबूजी को जयपुर बुलाकर उनका यहां सार्वजनिक अभिनन्दन किया जाय; किन्तु जब उन्हें मेरे इस इरादे का पता चला तो उन्होंने जयपुर प्राने का विचार ही छोड़ दिया।
बावजी से जैन समाज का हर क्षेत्र प्रभावित था। पूंजीपति, विद्वान, सामाजिक कार्यकर्ता, ले.क.पूरातत्व प्रेमी और कलाकार प्रादि मभी पर उनकी धाक थी। जैसा कि पहले कहा है उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी परहित निरतवृत्तिता और इसी कारण वे सब के प्राकर्षण के केन्द्र बने हए थे। यप वे चिररोगी थे फिर भी अपनी पहितनिरत वत्तिता को सजीव बनाए हए थे। उसमें कभी व्यवधान नहीं आने देते थे। सचमुच बे जीवन्त साहस के पुतले थे। रोग के प्र.क्रमणकारी दौरों की जैसे उन्हे परवाह हो नहीं थी। इस रोगी शरीर से वे अपने प्रक्षय यशः शरीर का निर्माण कर देश की भावी पीढी के लिए एक प्रादर्श उपस्थिन कर रहे थे। ऐसे असाधारण व्यक्तित्व का थोड़ा बहत परिचय ऐसे स्मृति प्रथों के प्राधार से ही मिल सकता है और यही इसके प्रकाशा का उद्देश्य भी है।
इस स्मृति प्रथ को यथाशक्ति उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है। फिर भी इसमें कमिय एवं त्रुटियां रहना समव है। मनुष्य तो प्रशक्त एवं अक्षम है इसलिए उसकी अक्षमताएं क्षमा करने के योग्य हैं।
इस स्मृति अथ की सफलता का सारा श्रेय खासकर उन विद्वान लेखकों को है जिन्होने इसके लिए अपनी कोमती रचना भेजकर हमें अनुगृहीत किया है।
-चैनसुखदास