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कसोटी समझता हूँ। जैन-दर्शन को भी यही मान्यता है । शल्य का अर्थ है माया। जहां माया है वहां सचाई की थाह पाना मुश्किल है। मैंने बाबूजी को इस कसौटी पर कसा था। उनमें जो दया और करुणा का स्रोत बहता था उसमें प्रदर्शन का स्वांग नहीं था। मुझे बाहर भीतर एक से जान पड़े। दुनियां में विद्वानों की कमी नहीं, दानियों की भी विकलता नहीं और कार्यक्षम लोग भी यत्र-तत्र बहत है। ये सारी चीजें प्रदर्शन को प्राधार बनाकर भी दुनियां को मांखों में धूल झोंक सकती हैं। इसलिए इनसे कभी मानवता नहीं निखर सकती।
बाबूजी को मैंने काफी निकट से देखा था। वे दो बार जयपुर प्राये । दूसरी बार तो केवल तीन दिन ही रहे; किन्तु जब वे पहली बार चिकित्सा के लिए यहां आये तो एक लम्बे अर्से तक ठहरे। इसके पहले 'बीरवाणी' के प्रकाशन के बाद व्यक्तिगत पत्रों के माध्यम से आपके साथ मेरा संपर्क स्थापित हो गया था; किन्तु कभी साक्षात्कार नहीं हुआ था। बाबूजी जब मुझे पहली बार मिले तो उनके व्यक्तित्व का मुझ पर काफी प्रभाव पड़ा । जयपुर में कुछ दिन चिकित्सा करा लेने के बाद स्वर्गीय सेठ भदीचंदजी जयपुर द्वारा निर्मापित वेदी वी प्रतिष्ठा के अवसर पर जब वे महावीरजी गये तब हम करीब पांच दिन एक ही जगह रहे, एक ही जगह खाया-पिया, उठे बैठे और सोए; एक ही साथ कार में गये मोर एक ही साथ वहां से वापिस आये। उस समय सामाजिक एवं दूसरे विषयों पर उनसे मेरी खुलकर बातें होती थी। उस प्रसंग में मैं उनके व्यक्तित्व का अविकल रूप में अध्ययन कर सका था।
बावूजी वस्तृतः साहित्यिक पुरातत्व प्रेमी, सेवाभावी एवं सामाजिक कार्यकर्ता थे। जयपुर में चिकित्सा के दौगन भी मैने देखा कि वे स्वास्थ्य की बिना परवाह किये घण्टों तक अविरत भाव से काम करते रहते थे । जयपुर के शास्त्र भण्डारी के उल्लेखनीय प्राचीन एवं सचित्र ग्रन्थों को मंगाकर वे देखते. उनके फोटो लिवाने का प्रबन्ध करते और ऐसे ही पुनीत प्रयत्नो में वे लगे रहते। मैं बीमारी के समय इतना अधिक काम करने के लिए उन्हें मना करता पर उन्होंने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। जैन साहित्य एवं पुरातत्त्व के प्रचार के लिए ऐसी लगन, ऐसी श्रद्धा और प्रास्था मैने अन्यत्र कहीं नहीं देखी। एक धनी कुल में उत्पन्न एवं संपन्न व्यक्ति में मानोपासना के प्रति इतनी लगन होने के उदाहरण हमारे देश में कम हो मिलेंगे।
बाबूजी ने यहां की कुछ संस्थानों और वीरवाणी को अपने जयपुर प्रवास के समय कितनी अार्थिक सहायता दी, इसका उल्लेख यहां नहीं करूगा; किन्तु मैं इस प्रसंग में उनकी एक उल्लेखनीय मानव वत्ति के उपस्थित करने का लोभ संवरण नहीं कर सकता। जब बाबूजी अपनी चिकित्सा के लिए यहां पाये तब पुरातत्व प्रेमी एवं अनुसंधानप्रिय स्थानीय विद्वान श्री श्रीप्रकाश शास्त्री क्षय रोग से ग्रस्त थे। बावजी वीरवाणी में प्रकाशित उनके खोजपूर्ण लेखों से प्रभावित थे। जब उन्हें इनके रोगग्रस्त होने का पता चला तो बाबूजी बहुत वितित हुए और मुझे कहने लगे कि इस होनहार युवक को जैसे हो वैसे बचाइये । इन्हें मैनीटोरियम में भर्ती करा दीजिए । वहां का सारा खर्चा मैं देता रहूंगा । बाबूजी ने अपनी बात अन्त तक निभाई किन्तु विधि के विधान को कौन टाल सकता है ? सैनीटोरियम की चिकित्सा से कोई लाभ नहीं हया और एक लम्बी अवधि के बाद उनका देहान्त हो गया।
मैने देखा कि बाबूजी में धर्म के मानव रूप का प्रकाश जल रहा था। उनकी कृपा जहां भी प्रस्फुटित होती कुछ करके हो विश्राम लेती। उनकी दया भी दान रहित नहीं होती थी। वे अनुकंपा