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________________ का निर्माण किया गया और अभिनन्दन ग्रन्थ की सारी प्रार्थ-व्यवस्था का भार श्रीमान सेठ जुगमंदिर लालजी जैन ने अपने ऊपर लिया। एक सम्पादक मण्डल चुना गया। हिन्दी और अंग्रेजी में अधिकारी विद्वानों से लेख मंगाये गये । लेख और संस्मरण एकत्रित हो जाने के बाद यह प्रश्न सामने पाया कि उसका प्रकाशन कलकत्ता, जयपुर या वाराणसी इन तीन स्थानों में से कहां करवाया जाय इस उधेड़बुन ने काफी समय ले लिया। में बारबार तकाजा करता रहा कि अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन में विलम्ब करना ठीक नहीं है किन्तु मेरे तकाजों का कोई फल नहीं निकला। उनका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता जारहा था। मैं ही नहीं अनेक दूसरे सज्जन भी उनके स्वास्थ्य के विषय में चितित थे। वे तो चिर रोगी थे। एकाएक रोग का प्रकोप बढ़ा और उसने उनके जीवन को सदा के लिए प्रस्त कर दिया। यह समाचार सभी ने ममन्तिक वेदना के साथ मुना। इस घटना ने अभिनन्दन की सारी योजना को अस्त-व्यस्त कर दिया। कितना अच्छा होता कि उनके जीवनकाल में यह अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो जाता। किन्तु स्वामी समन्तभद्र के शब्दों में "अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयम्" के अनुसार होता वही है जो होना होता है । भवितव्य के विधान को कौन टाल मकता है। ऐसी स्थिति में हमारे सामने इसके सिवाय दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह गया था कि उनके इस अभिनन्दन ग्रन्थ को उनके स्मृतिग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया जाय । उनके अनुकरणीय जीवन से हमें उनके देहावसान के बाद भी प्रेरणा मिलती रहे यही इस स्मृति ग्रन्थ के प्रकाशन का उद्देश्य है। इस प्रसंग में उनके महान् व्यक्तित्व के विषय में भी यहां हम दो शब्द लिख देना अपना कर्तव्य समझते हैं। बाबूजी वस्तुतः परहितनिरतवृत्ति थे । वे सहानुभूति, सेवा और सहयोग के मूर्तिमान समन्वय थे। उनकी इस समन्वयता का पता उनके जीवन के अध्ययन से चलता है। वास्तव में तो मनुष्य अज्ञेय है। इसका कारण यह है कि वह अनन्त चिसवृत्तियों का केन्द्र है और वे चित्तवृतियां अत्यन्त परोक्ष होने के कारण औरों की कौन कहे स्वयं मनुष्य की अनमति में नहीं पातीं। जब बे कदाचित जागृत होती है तब उसको उनका अनुभव होता है। किन्तु अधिकांश भाव तो ग्रशुद्ध ही रहते हैं। जो चित्तवृतिया जागृत होकर मनुष्य की अनुभूति में प्रा जाती है उन्हें बहुत बार वह माया का प्राधय लेकर बाहर नहीं माने देता; इसलिए कि उसकी कमजोरी का दूसरों को पता न लग जाय, और वह अपरिजेय ही बना रहता है। यह सच है कि मनुष्य जितना मनुष्य से डरता है उतना दूसरे विमो से भी नहीं डरता इसलिए उसके सामने बह अपने असली रूप में बहुत कम प्राता है। कोई भी मनुष्य किमी दूसरे मनुष्य के बाह्य कार्यों को देख कर ही उसके प्रशस्त एवं प्रशस्त होने का अनुमान करता है, इस का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य में यदि माया का बाहुल्य हो तो उसका ठीक रूप से अध्ययन करना बहुत कठिन हो जाता है। कारण यह है कि उस पर लोकंषणा का भूत बुरी तरह सवार रहता है। यह छोटी सी भूमिका हमें इस संस्मरण को ठीक समझने में सहायता देगी। कहना यह है कि बाव छोटेलालजी में मैंने जो सबसे बड़ी बात देखी वह है उनकी निःशल्यवृत्ति। मैं इसे ही म मुण्यता की
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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