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________________ सागर के शिष्य अमित सागर जिन्होंने तामिल भाषा के दो महत्वपूर्ण ग्रंथों को (यप्प रुंगलम् और यप्पमंगलकारिके) रचना की वे इसी अन्गय के थे । लेखक की युक्तियां अन्य गिद्वानों के लिये विचारणीय हैं। "Jaina Philosophy of Nodabsolutism and Omniscience." लेखक-प्रोफेसर रामजीसिंह । लेखक भागलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शन विभाग के प्रोफेसर हैं। लेखक ने बड़े ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से स्याद्वाद और सर्वशता में भेद बताते हुए वेदान्तियों के उच्चतर और निम्नतर ज्ञान से तुलना करते हुए बताया है कि यर्याप बहुत सी बातों में दोनो सिद्धान्तों में साम्य है किन्तु एक बहुत बड़ा मतभेद भी है । लेख बड़े परिश्रम से लिखा गया है और इस विषय पर जैनदर्शन और वेदान्तदर्शन के तुलनात्मक अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करता है। ___ "An Analysis of the Contents of the Kalkacharya Kathanak." लेखक-द्वा० बी० एन० मुकर्जी । लेखक ने कालकाचार्य कथानक की ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचना करते हुए स्थापना की है कि उसमें वरिणत लोअर इण्डस के पश्चिमी. किनारे पर शक बस्ती का अस्तित्व, उस प्रान्त पर पाथियन्स का अधिकार और सुराष्ट्र में शकों की हलचल तो ऐतिहासिक तथ्य माने जा सकते है किन्तु मुराष्ट्र में शकों की हलचल से जैनाचार्य कालक का कोई सम्बन्ध था या नहीं यह संदिग्ध है । विद्वानों को लेखक की इस स्थापना पर गम्भीरता से विचारना चाहिये। "The Conception of Dravyas in Jain Philosophy." लेखकडा. कमलचंद सौगाणी। लेखक उदयपुर यूनिवर्सिटी में दर्शन विषय के व्याख्याता हैं। जैन दर्शन में जो जोवादि ६ द्रव्य माने गये हैं उन पर उन्होंने जैन दृष्टिकोण से गहन चितन कर अपने विचार प्रस्तुत किये है। "The Nasal's Influence upon the Neighbouring Syllables." लेखकडा० एस. एन. घोपाल, व्याख्याता कलकत्ता यूनिवर्सिटी। अनुनासिक वर्ण का अपने समीपस्थ वर्ण के उच्चारण पर क्या प्रभाव पड़ता है इस पर सोदाहरण विस्तार से विचार करते हुए जेकोवी के मत की समीक्षा की गई है, जो तर्कपूर्ण है। "The Spirit of Jaina Prayaschitta.' लेखक-श्री Colette Caillat. पेरिस । इस लेख द्वारा जेनों में प्रायश्चित की जो प्रवृत्ति है और उसके पीछे जो मूल भावना है उससे यह ठोक हो अनुमानित किया गया है कि जन प्रारम्भ से ही अपने दोषों की ओर दृष्टिपात करके उनको दूर करने के लिये और आध्यात्मिक उन्नति के लिये प्रयत्नशील रहे हैं। वास्तव में प्रायश्चित के मन में अपराधी को दण्ड देने की भावना उतनी नहीं है जितनी कि अपने अपराध को स्वीकार कर भविष्य में उसे न दुहराने की। "On the Jaina School of Mathematics." लेखक-श्री एल० सी० जैन । लेखक गवर्नमेंट कालेज सीहोर में गणित विभाग के प्रोफेसर और हैड़ हैं। जन गरिणत के सम्बन्ध में बड़े परिश्रम से लिखा गया यह लेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । पोथागोरीय गणित और
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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