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________________ हिन्दी के आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य मिलते हैं। धमया' की उन्मुक्त प्रणय याचना और संसार की समस्त सुन्दर वस्तुओं के सार से विनिमित सुदर्शन द्वारा शील की रक्षार्थ उसकी प्रस्वीकृति में भावों का अन्त मा चित्रित किया गया है। धर्म के क्रोड में पोषित प्रेमकाव्य के रूप में 'सुदंसण चरित' का जैनप्रबंधकाव्यों में अनुपम महत्व है। जम्बूस्वामी रासा तेरहवीं शताब्दी में धर्मसूरि द्वारा रचित 'जम्बूस्वामी रासा' कथावस्तु शैथिल्य एवं संवादों के प्रभाव के कारण साहित्यिक सौन्दर्य से बहुत कुछ हीन है पर फिर भी भगवान् महावीर के सम कालीन जम्बूस्वामी के चरितकाव्य के रूप में उसका अपना महत्व है । पर उसमे भी बढ़कर है उसका भाषावैज्ञानिक महत्व क्योंकि गुजराती और हिन्दी के मूल सम्बन्ध को व्यक्त करने वाला यह भी एक ग्रंथ है जो दोनों भाषाओं में समान महत्वपूर्ण है। बाहुबलिस शालिभद्रसूरिकृत 'बाहुवनिरास' लण्डकाव्य भी तेरहवीं शताब्दी की महत्वपूर्ण रचना है। इस शौर्य से परिपूर्ण काव्य में ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलि को विजयवाहिनी का इतना ब्रोजस्वी वर्णन है जो जनसाहित्य में धन्यत्र दुर्लभ है। बंचल घरों की चंचल गति का वर्णन देखिए--- 1 'होसई हसिमिसि हगहराई, तरवर तार तोयार । खंड बुरल सेडविय, मन मान असवार ।।" 'नेमिनाथ उपई' 'मल्लिनाथ काव्य' और 'पार्श्वनाथ चरित' तेरहवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण जनकवियों में विनयचन्द्र सूरि की गणना होती है। उनके ३ प्रबन्धकाव्य हैं - 'नेमिनाथ चउपइ,' 'मल्लिनाथकाव्य' और 'पार्श्वनाथ चरित' भन्तिम दो । ausatori की अपेक्षा 'नेमिनाथ चउपद' को साहित्यिक जगत में अधिक महत्वपूर्ण स्थान मिला है। इसके दो कारण हैं- प्रथम तो यह कि यह CE सम्पूर्ण काव्य चौपाइयों में लिखा गया है जो सौभाग्य सर्वप्रथम इसी ग्रंथ को प्राप्त हुआ है और द्वितीय यह कि 'बारहमासा' सर्वप्रथम यही मिलता है। नेमिनाथ के वैराग्य प्रहण करने पर उनकी पत्नी राजल देवी का विलाप श्रावण से प्रासाद तक 'बारहमासा' के रूप में प्रस्तुत किया गया है । धावण में 'बिड भक्कद', भाद्र में 'भरिया सर पिल्लेवि सकवण रोज राजन देवि', 'कार्तिक में खित्तिग उम्मई संझ, फाल्गुण में 'वालि पनपंडति राजल दुक्ख कि तक रोयति', क्षेत्र में 'बलि वखि कोयल टहका करइ' प्रादि में कवि ने नारी हृदय की व्यथा का मार्मिक वर्णन कर इस खण्डकाव्य के सौष्ठव को बहुगुणित कर दिया है। 'संघपतिसमरा रासा' धम्बदेव कृत 'संघपतिसमरारासा' खण्डकाव्य संवत् १३०० की रचना मानी जाती है। शाह समरा संघपति द्वारा शत्रुञ्जय तीर्थ का उद्धार होने पर कवि ने यह ग्रंथ लिखा था। इनकी भाषा सरलता से भाज के हिन्दी पाठक की समझ में आने योग्य है। एक उदाहरण देखिए--- वाजिय संख असंख नादि कान दुइदुडिया घोड़े चड़र सल्लारसार राउत सींगड़िया । तर देवालउ जोत्रि वेगि वेगि घाघरि खु झमकइ । समसिम नवि गराइ कोई नव वारिउ पक्कद ॥ 'रेवन्तगिरिरासा' और सप्तक्षेत्रि रास तेरहवीं शती में रचित विजयमूरि कृत 'रेवन्त गिरिरासा' धौर चौदहवीं शती में रचित 'सप्तक्षेत्रिरास, ( कवि प्रज्ञात) का साहित्यिक मूल्य कम और धार्मिक अधिक है। विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता इस प्रकार हिन्दी के प्रादिकाल के कतिपय जैन प्रबन्धकाव्यों का एक संक्षिप्त अवलोकन यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इनकी विधाओं, शैलियों, काव्य रूढ़ियों आदि की पूर्वपरम्परा एवं परवर्ती काव्य पर प्रभाव विस्तृत अध्ययन के विषय है। ..
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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