Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-मध्याय
देश से देशान्तर होना--स्वरूप परिस्पन्द से छूट जाना होने के कारण सूत्रकार ने उन धर्म, अधर्म, और आकाश को इस सूत्र द्वारा “ निष्क्रिय " ऐसा सूचित किया है क्योंकि तीनों जगत् में व्यापने वाले स्वरूपको धारने वाले पदार्थ के हलन, चलन, आदि स्पन्द होने की हानि है, जो तीनों जगत् में ठसाठस भर रहा है वह कहाँ जाय ? और कहाँ से कहाँ ग्रावे ? यानी कहीं नहीं।
धर्माधर्मी परिस्पन्दलक्षण या क्रियया निष्क्रियो सकलजगद्व्यापित्वादाकाशवत् । परिणामलक्षणया तु क्रियया मक्रियावेव, अन्यथा वस्तुत्वविरोधात् । स्वरूपासिद्धो हेतुरिति चेन्न, धर्माधर्मयोः सकललोकव्यापित्वस्याग्रे समर्थनात् ।
धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य ( पक्ष ) पस्पिन्द स्वरूप क्रिया करके रहित होरहे निष्क्रिय हैं (साध्य ) क्योंकि सम्पूर्ण जगत् में व्याप रहे हैं ( हेतु ) आकाश के समान (अन्वयदृष्टान्त )। हाँ अपरिस्पन्द--प्रात्मक अनेक परिणाम स्वरूप क्रिया करके तो वे सहित होरहे सक्रिय ही हैं अन्यथा यानी धर्म आदि में यदि अपरिस्पन्द परिणाम स्वरूप क्रियायें भी नहीं मानी जायगी तब तो अपरिणामी पदार्थों के वस्तुपन का विरोध होजायगा जैसे कि खर -विषाण कोई वस्तु नहीं है । यदि यहाँ कोई यों आपेक्ष करे कि पक्ष में नहीं वर्त्तने से जैनों का सकल जगत्--व्यापीपना हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कह बैठना क्योंकि धर्म, अधर्म के सम्पूर्ण लोक में व्याप--रहेपन का 'ग्रिम ग्रन्थ में समर्थन कर दिया जावेगा, उतावले मत होनो।
सामर्थ्यात्सक्रियौ जीवपुद्गलाविति निश्चयः।
जीवस्य निष्क्रियत्वे हि न क्रियाहेतुता तनौ ॥२॥ धर्म, अधम, आकाश, इन तीन द्रव्य या काल को मिला देने से चार द्रव्यों के निष्क्रियपन की सूत्र द्वारा सूचना होचुकने पर विना कहे ही अन्य शब्दों की सामथ्य से यह निश्चय कर लिया जाता है कि जीव द्रव्य और पुद्ल-द्रव्य क्रियासहित हैं । पुद्गल को क्रियासहित माननेमें प्रायः किसी का विवाद नहीं है । हाँ वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य विद्वान् आत्मा में क्रिया होना नहीं मानते हैं कोई अक्रिया-वादी पण्डित तो किसी भी पदार्थ में क्रिया को नहीं मानते हैं, सिनेमा में देखे जारहे चित्रों की क्रियाओं के ज्ञान समान सभी क्रियाओं के ज्ञान भ्रान्त हैं, अन्य अन्य प्रदेशों पर पदार्थ दूसरा, तीसरा, उपज जाता है। पूर्व प्रदेशों पर का पदार्थ वहां ही समूल-चूल नष्ट होजाता है। इस पर हम जैनों का यह कहना है कि यदि जीव को क्रियारहित माना जायगा तो शरीर में क्रिया करने का हेतुपना जीव के घटित नहीं होसकेगा । भावार्थ-हाथ, पाँव, आदि शरीर में जीव ही क्रिया को उपजाता है, यथार्थ बात तो य. है कि हम हाथ को उठाते हैं यहां हाथ में प्रोत पोत घुस रहे प्रात्मा या प्रात्मा के प्रदेशों को ही हम उठा रहे हैं, आत्मा के उठ जाने पर उससे चिपट रहा हाथ भी उठ जाता है। बैलगाड़ी का ऊपरला भाग बैलों द्वारा खींचाजाता है, उससे चिपट रहे पहिये भी घिसटते जाते हैं गाड़ी पर बैठेहुए मनुष्य भी लदे जारहे हैं, आत्मा शरीर की हड्डियों में उलझरहे मांस, रक्त,