Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
४३
पंचम-अध्याय सामान्यसमवायौ कथं पर्यायौ ? नित्यत्वादिति चेन्न, तयोरपि गुणकर्मविशेषरदनित्यत्वोपगमात् । सदृशपरिणामो हि सामान्यं स्याद्वादिनों अविष्वग्मावश्च द्रव्यपर्याययोः समवायः, सचोत्पाद-विनाशवानेव सदृशव्यक्त्युत्पादे सादृश्योत्पादप्रतीतेस्तद्विनाशे च तद्विनाशमात्रमावात् ।
कलुषित-चित्त होकर वैशेषिक पूछते हैं कि तुम जैनों के यहाँ सामान्य और समवाय भला किस प्रकार पर्याय माने गये हैं ? क्योंकि तुम्हारे यहाँ उत्पाद व्यय वालीं पर्यायें अनित्य मानी गयीं हैं किन्तु नित्य होता हुआ, अनेकों में समवेत होरहा सामान्य और नित्य सम्बन्ध माना गया समवाय तो नित्य है अतः ये दोनों स्वतंत्र तत्त्व होने चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन सामान्य और समवाय दोनों को भी गुण, कर्म, और विशेष पदार्थों के समान अनित्यपना स्वीकार होजाता है । अथवा वैशेषिकों के यहाँ अनित्य द्रव्यों के सम्पूर्ण गुणों और नित्य द्रव्यों के भी कतिपय गुणों तथा सम्पूर्ण कर्मों को जैसे अनित्य माना गया है उसी प्रकार सामान्य और समवाय भी अनित्य मानने पड़ेंगे। विशेष पदार्थ भी दृष्टान्त समझ लिया जाय जब कि स्याद्वादियों के यहाँ सदृशपरिणाम ही सामान्य माना गया है तथा द्रव्य और पर्यार्यों का कथंचित् तदात्मक अपृथग्भाव ही समवाय सम्बन्ध है, तब तो वह उत्पादवान् और विनाशवान् ही है क्योंकि सदृश व्यक्तियों का उत्पाद होने पर सादृश्य ( सामान्य की उत्पत्ति होना प्रतीत होता है और उन सदृश व्यक्तियों का विनाश होने पर उस सदृशपन ( जाति । का पूरा विनाश होरहा देखा जाता है।
- सादृश्यस्य व्यक्त्यंतरेषु र्शनानित्यत्वमितिचेन्न, वैसादृश्यस्य विशेषस्य गुणस्य कर्मणश्चैवं नित्यत्वप्रसंगात् । नष्टोत्पन्नव्यक्तिभ्यो व्यक्त्यंतरेषु न तदेव वैसादृश्यादि दृश्यते ततोन्यस्यैव दर्शनादिति चेत्, सादृश्यादि परमेव किन्न भवेत् तथाप्रतीतेरविशेषात् । ततो द्रव्यपर्याय एव क्रिया । .
यदि वैशेषिक यों कहैं कि एक व्यक्ति के नष्ट होने पर भी अन्य दूसरी दूसरी व्यक्तियों में सदृशपना देखा जा रहा है, अतः सादृश्यस्वरूप सामान्य भी नित्य ही होना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि इस प्रकार तो विसदृशपन--स्वरूप विशेष पदार्थ को और गुण-को तथा कर्म को भी नित्य होजाने का प्रसंग आवेगा। देखो, विलक्षण पदार्थ के नष्ट होजाने पर भी दूसरे विसदृश पदार्थ विद्यमान हैं । एक काले, पोले, या खट्टे, मीठे, गुण के विनश जाने पर भी अन्य पृथिवियों में काले आदि गुण विद्यमान हैं, हलन, चलन, आदि कर्म भी सदा किसी न किसी के होते हो रहते हैं, प्रतः ये भी नित्य वन बैठेंगे।