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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन
विद्याभृतां शाश्वतिकमदृश्यत्वं दृश्यते, पिशाचादिवत् । जातिविशेषोऽपि नादृश्यत्वे हेतुरेकस्य जातिविशेषाभावादनेकव्यक्तिनिष्ठत्वात्तस्य । E- 22 अस्तु वा दृश्योऽदृश्यो वासी, तथापि किं सत्तामात्रेण १, ज्ञानवत्त्वेन २, ज्ञानेच्छाप्रयत्नवत्त्वेन ३, तत्पूर्वकव्यापारेण ४ ऐश्वर्येण ५, वा क्षित्यादेः कारणं स्यात् I तत्राद्यपक्षे कुलाला जगत्कर्तृत्वमनुषज्यते, सत्त्वाविशेषात् । द्वितीये तु योगिनामपि कर्तृत्वापत्तिः 1 तृतीयोऽप्यसाम्प्रतः, अशरीरस्य पूर्वमेव ज्ञानाद्याश्रयत्वप्रतिषेधात् । चतुर्थोऽप्यसंभाव्यः, अशरीरस्य कायवाक्कृतव्यापारवत्त्वासंभवात् । ऐश्वर्यमपि - 23 ज्ञातृत्वं कर्तृत्वमन्यद्वा । ज्ञातृत्वं चेत्, तत्किं ज्ञातृत्वमात्रं सर्वज्ञातृत्वं वा । आद्यपक्षे ज्ञातैवासौ स्यान्नेश्वरः, अस्मदाद्यन्यज्ञातृत्ववत् । द्वितीयेऽप्यस्य सर्वज्ञत्वमेव स्यान्नैश्वर्यं सुतादिवत् । अथ कुम्भकारादिनामप्यनेककार्यकारिणामैश्वर्यप्रसक्तिः नाप्यन्यत्,
कर्तृत्वं,
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इच्छाप्रयत्नव्यतिरेकेणान्यस्यैश्वर्यनिबन्धनस्येश्वरेऽभावात् ।
व्याख्या का भावानुवाद :
जगत में दो प्रकार के कार्य उपलब्ध होते है। कुछ घटादिक कार्य बुद्धिमान् कर्ता द्वारा बने हुए दिखाई देते है और कुछ कार्य बुद्धिमान् कर्ता के बिना अपनेआप तैयार हुए है । जैसेकि, तृण, जंगली वृक्ष इत्यादि ।
"उन जंगली वृक्षो को पक्ष बना देने से व्यभिचार नहि आयेगा । अर्थात् उन जंगली वृक्षो को भी ईश्वरकृत कह देने से व्यभिचार नहि आयेगा" - ऐसा आप कहोंगे तो वह उचित नहीं है। क्योंकि उससे तो व्यभिचार का विषय बनने से सभी को पक्ष में समाविष्ट करना संभव होने से व्यभिचार जैसा कोई दोष ही नहि रहेगा । अर्थात् जिस वस्तु से हेतु में व्यभिचार बताया होगा । उस वस्तु का पक्ष में समावेश हो जाने से कोई हेतु व्यभिचारि बनेगा ही नहीं। तथा "गर्भ में" रहनेवाला मैत्र का पुत्र श्याम है। क्योंकि वह मैत्र का पुत्र है। जैसेकि मैत्र के विद्यमान चार पुत्रो की तरह। यह अनुमान भी गमक बन जायेगा । क्योंकि सर्वत्र व्यभिचार के विषय को पक्ष में समावेश करके हेतु को अव्यभिचारि बनाया जा सकता है 1 इसलिए जिस पदार्थ से व्यभिचार बताया जाये उसका समावेश पक्ष में कर देना लेशमात्र उचित नहीं है ।
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ईश्वर की बुद्धि तथा उसके प्रयत्न आदि गुणो से भी कार्यत्व हेतु व्यभिचारी है। वे सभी बुद्धि आदि गुण आत्मा के विशेष गुण होने से अनित्य = कार्य तो है । परंतु उसकी उत्पत्ति में स्वयं ईश्वररुप समवायिकारण (उपादान कारण) से भिन्न दूसरा कोई बुद्धिमान् ईश्वर निमित्तकारण नहीं होता। यदि उस ईश्वर की बुद्धि आदि की उत्पत्ति में दूसरा ईश्वर कारण हो और उसकी बुद्धि उत्पन्न करने में तीसरा ईश्वर कारण बनता हो, तो अनवस्थादूषण आता है ।
(E-22-23) - तु० पा० प्र० प० ।
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