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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
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व्याख्या का भावानुवाद :
अथवा मान भी ले कि पृथ्वी इत्यादि में "यह ईश्वर ने बनाई हुई है।" ऐसी कृतबुद्धि उत्पन्न होती है। तो भी कार्यत्वहेतु विरुद्ध है। क्योंकि जैसे घटादि में शरीरी, अल्पज्ञ कर्ता सिद्ध होता है, वैसे पृथ्वी इत्यादि का कर्ता भी शरीरी और असर्वज्ञ ही सिद्ध होगा। परन्तु आपके माने हुए अशरीरी-सर्वज्ञ कर्ता सिद्ध नहीं होंगे। इसलिए पृथ्वी इत्यादि के कर्ता के रुप में सर्वज्ञ और अशरीरी कर्ता की सिद्धि कार्यत्व हेतु से होने के बजाय शरीरि और असर्वज्ञ कर्ता की सिद्धि होने से कार्यत्व हेतु विरुद्ध बन जाता है।
ईश्वरवादि (पूर्वपक्ष) : दृष्टान्त और दार्टान्तिक का साम्य ढुंढने में तो सर्वत्र हेतुओ की असंगति हो जायेगी। अर्थात किसी भी स्थान पे दृष्टान्त दिया गया हो, वह दृष्टान्त दार्टान्तिक के साथ पूर्ण रुप से समानता रखता हो, वैसा देखने को नहि मिलता है। परंतु कुछ अंशो की समानता को आगे करके (दार्टान्तिक को समजाने के लिए) दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे कि, चन्द्रमा के समान मुख है। यहाँ चन्द्रमा का आकाश में रहना, रात्रि में प्रकाशित होना इत्यादि धर्म मुख में न होने पर भी चन्द्र में रहे हुए आह्लादकत्व को आगे करके मुख के साथ समानता बताई जाती है। दृष्टान्त तो कोई मुख्यधर्म की मुख्यता से दिया जाता है। पर्वत में अग्नि को सिद्ध करने के लिए दिया गया हुआ महानसीय अग्नि दृष्टान्त में पर्वतीय अग्नि के सभी धर्म कहां देखने को मिलते है ? सारांश में दृष्टान्त और दार्टान्तिक की पूर्ण रुप से समानता का आग्रह रखोंगे तो सभी अनुमानो के उच्छेद की आपत्ति आयेगी।
जैन ( उत्तरपक्ष): पर्वत में अग्नि का अनुमान करने के समय पर्वतीय अग्नि और महानसीयअग्नि ये दोनो विशेष अग्निओ में रहनेवाला अग्नित्व सामान्यधर्म है। इसलिए वह अनुमान करना युक्त है। परन्तु घटादि के शरीरि और असर्वज्ञ कर्ता तथा पृथ्वी इत्यादि के अशरीरि और सर्वज्ञ कर्ता में कोई सामान्य कर्तृत्व धर्म नहीं है, कि जिससे सामान्यकर्ता की सिद्धि हो सके।
आप ऐसा कहोंगे कि “सामान्यकर्तृत्व की प्रसिद्ध ही है। इसलिए घटादि के उदाहरण से पृथ्वी इत्यादि के कर्ता के रुप में अशरीरि और सर्वज्ञ कर्ता की सिद्धि में कोई बाध नहीं है।"
तो आपकी यह बात युक्त नहीं है, क्योंकि आज तक-किसीने भी अशरीरि तथा सर्वज्ञ कर्ताविशेष का अनुभव ही किया नहीं है । पर्वतीयअग्नि और महानसीयअग्नि दोनो दृश्य है। इसलिए उसमें रहनेवाला अग्नित्व नाम का सामान्यधर्म प्रसिद्ध हो सकता है। परन्तु कुम्हार आदि शरीरिकर्ता दृश्य होने पर भी ईश्वर नाम का अशरीरि और सर्वज्ञ कर्ता आज तक स्वप्न में भी अनुभव में नहीं आया है कि जिससे दोनो में रहा हुआ कर्तृत्व नामका सामान्य धर्म प्रसिद्ध हो सके। जैसे कि गधे के सिंग अप्रसिद्ध है, । इसलिए उसमें रहनेवाले खरविषाणत्वरुप सामान्य धर्म की कल्पना नहीं की, जा सकती। इस तरह से अशरीरि और सर्वज्ञ कर्ता भी अप्रसिद्ध ही होने से उसमें रहनेवाला सामान्यकर्तृत्वधर्म की कल्पना करना नितान्त असंभवित है।
इसलिए जैसे प्रकार के कारण से जिस प्रकार का कार्य उपलब्ध हो, वैसे प्रकार का ही अनुमान करना चाहिए ।(नहीं कि कर्ता शरीरी दिखता होने पर भी अशरीरी और सर्वज्ञ कर्ता का अनुमान किया जाये।)
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