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-कमपराधलवं मयि पश्यसि-विक्र० ४।२९,- 2. जो पर्व का दिन न हो अर्थात् अनुपयुक्त समय यथापराध-दंडानाम्-रघु०११६ ।
या ऋतु। अपराधिन् (वि०) [अप+राष्+णिनि] कष्टकर, | अपल (वि०) [न० ब०] बिना मांस का, -लम् कील दोषी।
या कुंडी। अपरिग्रहः नि.ब] जिसके पास न कोई सामान हो, न | अपलपनम् अपलापः [ अप+लप+ल्युट, घा वा1 1.
नौकर चाकर; जो सब प्रकार से हीन हो—निराशीर- छिपाना, गोपन 2. छिपाव या जानकारी से मुकर परिग्रहः,-हः 1. अस्वीकृति, इंकारी 2. दरिद्रता, जाना, टालमटोल, न हि प्रत्यक्षसिद्धस्यापलापः कत गरीबी।
शक्यते--शारी0 3. सत्यता, विचार व भावनाओं को अपरिच्छर (वि.) न० ब०] गरीब, दरिद्र ।
छिपाना, घटाकर बतलाना । सम० -पण्डः (विधि अपरिच्छिन्न (वि०) नि० त०] 1. जिसका अंतर न पह- में) उस व्यक्ति पर किया जाने वाला जुर्माना जो चाना गया हो, 2. सीमा रहित ।
कि दोष सिद्ध होने पर भी अपने दोष को स्वीकार अपरिणयः [न० त०] चिरकौमार्य, ब्रह्मचर्य ।
नहीं करता। अपरिणीता [न० त०] अविवाहित कन्या ।
अपलापिन् (वि०) [ अप+लप+णिनि ] मुकरने वाला, अपरिसंख्यानम् नि० त०] असीमता, असंख्यता।
दोष को स्वीकार न करने वाला, छिपाने वाला। अपरीक्षित (वि.)/न. त०] 1. बिना परीक्षा लिया हुआ अपलाषिका [ अप+लष्+ण्वुल स्त्रियां टाप् ] अत्यधिक
बिना जांचा हआ, अप्रमाणित 2. अविचारित, मूर्खता- प्यास या इच्छा, या सामान्य तृषा (कई बार इसी पूर्ण, विचारहीन (पुरुष या वस्तु) कारकं नाम पंचम अर्थ में 'अपलासिका' शब्द भी प्रयुक्त होता है, परन्तु तन्त्रम्--पंच ५, जो कर्ता विचारशील न हो, 3. जो उसे अशुद्ध समझा जाता है)। स्पष्ट रूप से स्थापित या सिद्ध न हुआ हो।
अपलाषिन्-लाषुक (वि.) [अप+लष+णिनि, उका अपरषु (वि.) [न० त०] क्रोधशून्य--अपरुषापरुषाक्षर
वा ] 1. प्यासा 2. प्यास या इच्छा से रहित--प्रलामीरिता रघु०९।८।
पिनो भविष्यन्ति कदा स्वेतेऽपलाषका:-महाभा०। अपरूप (वि.) स्त्री०-पा,-पी] [ब. स.] कुरूप,
| अपवन (वि.) [न० ब०] बिना वायु या हवा के, हवा से विरूप, बेढंगी शक्ल वाला--पम् [प्रा० स०] विरूपता। सुरक्षित-नम् [प्रा० स०] मगर के निकट लगाया अपरेछुः (अव्य०) [अपर+एद्युस्] अगले दिन।
हुआ बाग वाटिका या उपवन । अपरोक्ष (वि.) न० त०] 1. दृश्य 2. प्रत्यक्ष 3. जो दूर | अपवरकः-का [अप+व+बुन् स्त्रियां टाप्] 1. भीतर का
न हो--क्षम् (क्रि० वि०) की उपस्थिति में (संब० कमरा, शयनागार 2. वातायन, मोघा--ततश्चैकस्मा
के साथ), अपरोक्षात् प्रत्यक्ष रूप से, दृश्यतापूर्वक । दपवरकात्-मुद्रा०। अपरोषः [अप+रुघ्+घञ] वर्जन, निषेध ।। अपवरणम् [अप++ल्युट्] 1. आच्छादन, पर्दा 2. अपर्ण (वि.) [न० ब०] बिना पत्तों का,- पार्वती या पोशाक, वस्त्र । दुर्गादेवी, कालिदास इस नाम का कारण बतलाते हुए।
अपवर्गः [अप+ वृज्+घञ्] 1. पूर्ति, समाप्ति, किसी कहते हैं :-स्वयं विशीर्णद्रमपर्णवत्तिता परा हि काष्ठा
कार्य की पूर्णता या निष्पन्नता–अपवर्गे तृतीया-पा० तपसस्तया पुनः, तदप्यपाकीर्णमिति प्रियंवदां वदन्त्य
२॥३॥६, क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृता:-कि० १२१४, पणेति च तां पुराविदः--कु० ५।२८ ।
अपवर्गे तृतीयेति भणतः पाणिनेरपि नै० १७१६८, कि० अपर्याप्त (वि०) [न० त०] 1. जो यथेष्ट या काफी न १६।४९, 2. अपवाद, विशिष्ट नियम-अभिव्याप्या
हो, अपूर्ण, जो पर्याप्त न हो 2. असीमित 3. अयोग्य, पकर्षणमपवर्ग:-सुश्रु० 3. मोक्ष, परमगति, अपवर्गअसमर्थ,-अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् महोदयार्थयोर्भुवमंशाविव धर्मयोर्गती---रघु० ८१६, -भग०१॥३०॥
4. उपहार, दान 5. त्याग 6 छोड़ना (जसे बाण का)। अपर्याप्तिः (स्त्री०) [नज+परि+आप+क्तिन् ] | अपवर्जनम् [अप+व+ल्युट् ] 1. त्याग, (प्रतिज्ञा) यथेष्टता का अभाव।
पालन, (ऋणादि) परिशोध, 2. उपहार या दान 3. अपर्याय (वि०) [न० ब०] क्रमरहित, -- यः क्रम या | परमगति। प्रणाली का अभाव ।
| अपवर्तः [ अप- वृत्+घञ.] 1. निकाल लेना, दूर अपर्युषित (वि०) [ना+परि+वस्+क्त ] जो रात करना 2. (गण) सामान्यविभाजक जो दोनों साम्यका रक्खा हुआ न हो, ताजा, नुतन ।
राशियों में व्यवहृत होता है। अपर्वन (वि.) [न.ब.] जिसमें जोड़ न लगा हो, | अपवर्तनम् [अप-वृत्+ल्युट] 1. दूर करना, स्थान
(नपुं०) न० त०] 1. जोड़ या संयोग बिन्दु का अभाव । स्थानान्तरण 2. निकाल लेना, वञ्चित करना, न
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