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श्री संवेगरंगशाला
चिरकाल तक दुःखों को सहन कर महा मुश्किल से प्राप्त हुए करोड़ सुवर्ण मोहर को एक कोडी के लिए गवाँ दे ?
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इस संसार में जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ साधन करने योग्य हैं, उसमें भी अन्तिम तीन पुरुषार्थ की सिद्धि में हेतु रूप एक धर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है । फिर भी अधिक मात्रा में मदिरा के रस का पान करने वाला पागल मनुष्य के समान मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह में उलझन के कारण जीव उस धर्म को यथार्थ स्वरूप नहीं जानता है । इसलिए हे महायशस्वी! मिथ्यात्व के सर्व कार्यों का त्याग करके तू केवल एक श्री जिनेश्वर को हो देव रूप और मुनिवर्य को गुरू रूप में स्वीकार कर, प्राणीवध, मृषावाद, अदतादान, मैथुन और परिग्रह पापों को छोड़ दो ! इन पापों को छोडने से जीव भव भय से मुक्त होता है इससे श्रेष्ठतम् अन्य धर्म तीन जगत में भी नहीं है और इस धर्म से रहित जीव किसी तरह मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः सार रहित और अवश्य विनाशी शरीर का केवल आत्म गुण रूपी धर्म उपार्जन सिवाय अन्य कोई फल नहीं है । और महा वायु से पद्मिनी पत्ते के अन्तिम भाग में लगा हुआ जल बिन्दु के समान अस्थिर इस जीवन का भी धर्मोपार्जन बिना दूसरा कोई फल नहीं है । उसमें भी सर्वविरति से विमुख जीव इस धर्म के प्रति पूर्ण प्राप्ति करने के लिए शक्तिमान नहीं होता है और इसकी प्राप्ति बिना जीव मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता है, और उस मोक्ष के अभाव में सभी कलेश के बिना का एकान्तिक अत्यधिक अनन्त सुख अन्यत्र नहीं मिल सकता है । इस तरह के सुख वाला मोक्ष की प्राप्ति के लिए यदि तेरी इच्छा हो तो जिन दीक्षा रूपी नौका को ग्रहण करके संसार समुद्र को पार हो जाओ। इस तरह चारण मुनि के कहने से हर्ष के आवेश में उछलते रोमांचित वाला और भक्ति से विनम्र बने तूने उस मुनिवर्य के पास दीक्षा ली।
उसके पश्चात् सकल शास्त्र को गुरूमुख से सुनकर अभ्यास किया, बुद्धि से सर्व परमार्थ तत्त्व को प्राप्त किया, छह जीव निकाय की रक्षा में तत्पर बना, गुरुकुलवास में रहते हुए विविध तपस्या करते तू गुरू महाराज, ग्लान बाल आदि मुनियों की वैयावच्च करते अपने पूर्व पापमय चरित्र की निन्दा करते नये-नये गुणों की प्राप्ति के लिए परिश्रम करता था और विशेषतया प्रशमरूपी अमृत से कषायरूपी अग्नि को शान्त करते इन्द्रियों के समूह को वश करने वाला तू चिरकाल तक संयम की साधना कर और अन्त में अनशन स्वीकार कर शुभ ध्यान से मरकर सौ धर्म कल्प में देव उत्पन्न हुआ । और वह