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कोई कृति उपलब्ध नहीं होती है।
नाट्यदर्पण
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नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में नाट्यदर्पण का महत्वपूर्ण स्थान है। यह
वह श्रृंखला है जो धनंजय के साथ विश्वनाथ कविराज को जोड़ती है। यद्यपि इसकी रचना भरतमुनि के "नाट्यशास्त्र" के आधार पर की गई है तथापि इसमें अनेक विषय महत्वपूर्ण तथा परंपरागत सिद्धान्त से विलक्षण हैं। आचार्य प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्वाचार्य स्वीकृत नाटिका के साथ प्रकरणिका नामक नवीन विधा का संयोजन कर द्वादशं रूपकों की स्थापना की है। इसी प्रकार रस की सुख-दुःखात्मकता स्वीकार करना इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है ।। इसमें नौ रसों के अतिरिक्त तृष्णा, आर्द्रता, आसक्ति, अरति तथा संतोष को स्थायीभाव मानकर क्रमशा: लौल्य, स्नेह, व्यसन, दुःख तथा सुख रस की
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भी संभावना की गई है। इसमें शान्त रस का स्थायिभाव श्रम स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थों मे ऐसे अनेक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है जो अद्यावधिं • उपलब्ध हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में दो भाग पाये जाते हैं
प्रथम कारिकाब्दु मूलग्रन्थ तथा द्वितीय उसके ऊपर लिखी गई स्वोपज्ञ विवृति । कारिकाओं
मैं ग्रन्थ का लाक्षणिक भाग निवद है तथा विवृति में तद्वविषयक उदाहरण व कारिका का स्पष्टीकरण ।
1. स्थायीभावः श्रितोत्कर्षो विभाव्यभिचारिभिः स्पष्टानुभावनिश्चैयः सुखदुः खात्मको रस।। हि नाट्यदर्पण, 3/7