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हेमचन्द्राचार्य के अनुसार पूर्वोक्त गुपों में ययपि वर्ष, रचना, तमासादि नियत (निश्चित), तथापि कहीं कहीं वक्ता, वाच्य (प्रतिपाय विषय ) तथा प्रबन्ध के औचित्य से दर्पादि का अन्य प्रकार का पयोग भी उचित माना जाता है।' कहीं कहीं वक्ता तथा प्रबन्ध दोनों की उपेक्षा करके केवल वाच्य के औचित्य से ही रचना होती है। जैसे - "मन्यायस्तार्पवाम्मः .... इत्यादि। कहीं वक्ता तथा प्रबन्ध दोनों की उपेक्षा करके केवल वाच्य के औचित्य से ही रचनादि होती है। जैसे - प्रोटछेदानुरूपोळल...।' इत्यादि, तथा कहीं कहीं वक्ता तथा वाच्य की उपेक्षा करके प्रबन्ध के औचित्य के अनुसार रचनादि होती है, यथा - आख्यायिका में श्रृंगार के वन में कोमल वर्षादि प्रयुक्त नहीं होते है, कथा में रौद्ररस में अत्यन्त उद्धत वर्परचनादि प्रयुपत नहीं होते हैं और नाटकादि में रौद्ररत में भी दीर्घसमासादि प्रयुक्त नहीं होते हैं। इसी प्रकार अन्य औचित्यों का भी अनुसरण करना चाहिए।'
1. "वक्तृवाच्यप्रबन्धौचित्याद्रपदीनामन्यथात्वमपि।।
काव्यानुशासन, 4/9 2. वही, पृ. 292 , वही, पृ. 293 + वही, पृ. 292 - 294