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दक्षता, शौर्य, उत्साह, नीच - जुगुप्सा और उत्तम स्पर्धा का ज्ञान कराने वाला सात्त्विक गुप शोभा है। आशय यह है कि शरीर विकार ते जो दक्षता आदि प्राप्त होती है वह शोभा है।
828 विलास : "धीरे गतिदृष्टिसस्मित वचो विलासः।। अर्थात धीरगति, धीरदृष्टि और मुस्कराते हुए बोलना विलास गुप है।
38 ललित : "मृद्धः शृइ.गारचेष्टा ललितम्” अर्थात कोमल शृङ्गारिक चेष्टायें ललित गुप है।
148 माधुर्य : "क्षोमेऽप्यनुल्वपत्वं माधुर्यम्' अर्थात् युद्ध नियुद्ध व्यायामादि मे क्रोध अाने पर या क्रोध का महान कारप उपस्थित होने पर भी मधुर आकृति होना माधुर्य गुप है।
35६ स्थैर्य : विघ्नेऽप्यचलनं स्थैर्यम् ।। अर्थात विघ्न उपस्थित होने पर भी विचलित न होना स्थैर्य गुप है।
168 गाम्भीर्य : "हादिविकारानुपलम्भकृत गांभीर्यम' ।। अर्थात हर्षादि विकारों का ज्ञान न होना गाम्भीर्य गुप है। आशय यह है कि जिसके प्रभाव से बाहरी हर्ष क्रोधादि के विकार का दृष्टि-विकास, मुवरागादि पर कोई असर नहीं पड़ता है वह देह का स्वभाव ही गाम्भीर्य गुप कहलाता है।
178 औदार्य : "स्वपरेष दानाभ्युपपत्तिसंभाषपान्यौदार्यम् ।। अर्थात अपने और दूसरे में भेदभाव न कर दान, अनुगह और, प्रियभाषप आदि करना औदार्य गुप है।