Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 373
________________ 362 कर सकना असम्भव है। और यह नियम अर्थात् चारों प्रकार के स्वभाव का एक व्यक्ति में वपन नहीं किया जा सकता है केवल प्रधान नायक के विषय में ही है। गौप नायकों में तो पूर्व - स्वभाव को छोड़कर अन्य स्वभाव का वर्पन भी किया जा सकता है। जो नाटक के नायक को केवल धीरोदात्त ही मानते हैं वे भरतमुनि के सिदान्त को नहीं समझते हैं। और नाटकों में धीरललित आदि नायको' के भी पाए जाने से कवियों के व्यवहार से अपरिचित प्रतीत होते हैं।' अर्थात भरतमुनि के सिद्धान्त तथा कवियों के व्यवहार दोनो के अनुसार नाटकों में चारों प्रकार के नायकों का चित्रप किया जा सकता है। केवल धीरोदात्त ही नायक हो ऐसा बंधन नहीं है। इसके पश्चात् धीरोद्त आदि का अर्थ बतलाते आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र लिखते हैं कि धीरोद्धत नायक अस्थिर - चित्त, भयंकर, अभिमानी, छली, आत्म - पलाधी, धीरोदात्त नायक अत्यन्त गम्भीर, न्यायपिय, शोक - क्रोध आदि के वशीभूत न होने वाला, अमाशील और स्थिर, धीरललित नायक श्रृंगार प्रिय, गीत, वाधादि कलाओं का प्रेमी, राज्यभार को मंत्री को सौंपकर निश्चिंत हो जाने वाला सुखी व कोमल स्वभाव का तथा धीरप्रशान्त नायक सर्वथा अहंकाररहित, दयाल, विनयशील व नीति का अवलम्बन करने वाला होता है। आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार ये धर्म 1. हि. नाट्यदर्पण, वृत्ति, पृ. 27 2. धीरोदा चल५ चण्डी दी दम्भी विकत्थनः। धीरोदात्तोऽतिगम्भीरो न्यायी सत्वी क्षमी स्थिरः।। श्रृंगारी धीरललितः कलासक्त: सुखी मुदः। धीरशान्तोऽनहंकारः कृपानियी नयी ।। हि नाट्यदर्पप 1/8-9

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