Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 393
________________ 382 का अंतर उपादेय है। उन्होंने लिखा है कि – देखने योग्य वस्तु के न रहने पर भी दृष्टि फैलाना, गहप योग्य वस्तु के अभाव में भी हाथ आदि का चलाना जैसे निष्प्रयोजन व्यापार ललित हैं और सपयोजन व्यापार विलास है। यही इनमें अंतर है।' ___जैनाचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने स्त्रियों के उक्त बीस स्त्वज अलंकारों में से प्रथम तेरह को अप्राप्तसंभोगता में भी होने से अनुभाव भी माना है तथा शोभा कान्ति आदि अन्तिम सात को अलंकार मात्र।2 - - 1. कृटव्यं विना दृष्टिक्षेपो, ग्राह्ममृते हस्तादिव्यापृतिरित्येवं निष्प्रयोजनो ललितम्। सप्रयोजनस्तु व्यापारो विलास, इत्यनयोर्भेदः इति। वही, 4/33 वृत्ति 2. एते च भादादयो विशतिरलंकाराः स्त्रीपामित्युक्तमन्यैः। अस्माभिस्तु तेष्वायास्त्रयोदश अप्राप्तसंभोगतायामपि सम्भवन्तीत्यनुभावत्वेनापि प्रतिपादिताः। शोभा - कान्ति दीप्ति - माधुर्य - धैर्योदार्य प्रागल्भ्यनामानस्तु सप्त प्राप्तसंभोगमेव भवन्तीत्यलंकारा एव नानुभावतां भजन्तीति। अलंकारमहोदधि, पृ. 76-77

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