Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 396
________________ 385 किसी एक वृत्ति के प्रधान होने के कारप ही होती हैं, अन्यथा अनेक पेष्टाओं से मिलता हुआ वृत्तितत्व एक ही है, क्योंकि नाटक या प्रबन्धादि में किसी भी वृत्तितत्व का दूसरी वृत्तियों के योग के बिना निष्पन्न होना संभव ही नहीं। यदि नाटक में विदूषक भी हास्य के लिये चेष्टा करता है तो वह भी मन या बुद्धि से सम्झकर ही करता है। अत: वृत्तियां एक दूसरे से संवलित होने पर भी अंश-विशेष की प्रधानता होने से भारती, सात्वती, कैशिकी व आरटी भेद से चार प्रकार की होती हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र अनभिनेय काव्य में भी वृत्तियों की स्थिति स्वीकार करते हैं, क्योंकि कोई भी वर्णनीय काव्य - व्यापार शून्य नहीं हो सकता।' उन्होंने वृत्तियों को नाट्य की माता स्वीकार किया है। भारती वृत्ति : नाट्यदर्पणकार के अनुसार, समस्त रूपकों में रहने वाली, आमुख तथा परोचना ते उत्थित (अर्थात् नाटक के प्रारंभिक भागों में विशेष रूप से उपस्थित) सम्पर्प रसों ते परिपूर्ण, तथा प्राय : मानसाचिकैपच व्यापारैः सम्भिधन्ते। शब्दोल्लिखितं मनः प्रत्ययं विना रुजकत्य कायव्यापारपरित्पन्दस्याभादात। तेनानभिनयऽपि काव्ये वृत्तयो भवन्त्येव। न हि मापारशन्यं किञ्चिद् वर्षनीयमस्ति। हि. नाट्यदर्पण, पृ. 274 2. भारती सात्वती कैशिक्यारभटी च वृत्तयः रस-भावाभिनयगाश्चतस्रो नाट्यमातरः।। यही, 3/1

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