Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 388
________________ 377 स्त्रियों के ही वे अलंकार है, अत: तद्गत मानकर ही यहां उनका वर्णन किया गया है। पुरुष का तो उत्साह वर्षन अन्य अलंकार है और नायक के समस्त भेदों में धीरता विशेष रूप से कहा ही है, उसी ते आच्छादित तो भंगारादि धीरललित इत्यादि में धीर शब्द है। उन्होंने आगे विश्लेषण करते हुए लिखा है कि कुछ अलंकार क्रियात्मक हैं और कुछ स्वाभाविक गुप। कियात्मकों में भी कुछ पूर्वजन्म अभ्यस्त रतिभाव मात्र के द्वारा स्त्वोत्पन्न होने ते देहमात्र में होते हैं, वे अंगज कहलाते हैं। अन्य इस जन्म में समुचित विभावशात प्रस्फुटित रतिभावयुक्त देह में स्फुरित होते हैं वे स्वाभाविक कहलाते हैं अर्थात स्वयं के रतिभाव से हृदयगोचरीभूत होते हैं। जैसे किसी नायिका के कुछ अलंकार स्वभावदशात् होते हैं, अन्य नायिका के दूसरे और किसी नायिका के दो-तीन अथवा इससे भी अधिक स्वाभाविक होते हैं। भाव, हाव और हेला सभी भाव तत्व की अधिकता होने से समस्त उत्तम नायिकाओं में होते हैं। शोभा आदि सात अलंकार हैं। इसी प्रकार अंगज और स्वभावज क्रियात्मक हैं तथा शोभा आदि गुपात्मक होने से अयत्नज हैं आयासपूर्वक उत्पन्न होने से क्रियात्मक कहलाते हैं।' बीत अलंकारों का विवेचन इस प्रकार है तीन अंगज अलंकार - भाव, हाव और हेला - ये तीन अंगज अलंकार क्रमश: अल्प, अधिक और अत्यधिक विकारात्मक होते हैं। 2 1. काव्यानुशासन, वृत्ति. पृ. 422 2. भावहावहेलास्त्रयोऽइ.मना अल्पबहुभयो विकारात्मका:। काव्यानुवारतन, 7/34

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