Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 386
________________ 375 इनमें से अन्तिम तीन अवस्थाओं को परस्त्री नायिका की भी जानना चाहिये। क्योंकि संकेत से पूर्व वह विरह के लिये उत्कंठित रहती है, बाद मे विपका दि के द्वारा अभिसरण करती है और किसी कारपवश संकेत स्थल पर नायक को न पाकर विपलब्ध रहती है। अत: ये तीनों अवस्थायें स्वकीया और परकीया दोनों की होती हैं। 2 ___ जैनाचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र व वाग्भट द्वितीय ने भी नायिका के उक्त आठ भेदों का उल्लेख इसी रूप में किया है। प्रतिनायिका - काव्य में प्रतिनायक के समान प्रतिनायिका भी महत्व है। यह नायिका की प्रतिपक्षिनी होती है तथा प्रायः प्रधान नायिका के प्रणय व्यापार में बाधक बनती है। अतः प्रधान नायिका द्वारा अनेक कष्टों को प्राप्त करती है। यह कथावस्तु को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रतिनायिका का स्वरूप निरूपप करते हुये लिखा है - "ईष्यहित : सपत्नी प्रतिनायिका' अर्थात ईर्ष्या के कारपभूत सौत (सपत्नी) प्रतिनायिका कहलाती है। जैसे रूक्मिपी की सत्यभामा है। आचार्य हेमचन्द्र ने नायिका की केवल प्रतिनायिका का स्वरूप प्रस्तुत किया है। क्योंकि दूती आदि तो लोक में प्रसिद्ध ही हैं। अत : उनका निरूपप नहीं किया है। 1. अन्यत्र्यवस्था परस्त्री। काव्यानुशासन, 7/31 2. वही, वृत्ति , पृ. 421 3. हि. नाट्यदर्पण, 4/23-26 4. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 63 5. “दत्यश्च नायिकानां लोकस्दिा एवेति नोक्ताः। काव्यानु. वृत्ति, पृ. 421

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