Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 390
________________ 379 गर्व, दुःस, श्रम और अभिलाष का एक साथ होना किलिकिंचित कहलाता है। मोट्टायित : "प्रियकथादौ तदभावभावनोत्था चेष्टा मोट्टायितम् अर्थात् प्रिय की कथा आदि में उसके भाव से प्रभावित होने पर उत्पन्न चेष्टा मोट्टायित कहलाता है। 888 कुट्टमित : "अधरा दिग्रहाद दुःयेऽपि हर्षः कुट्ट मितम” अर्थात प्रियतम दारा अधरादि के गृहप से दुःख होने पर भी हर्ष का भाव कुट्टमित कहलाता है। ललित : “मतृपोऽइगन्यासो ललितम्' अर्थात कोमल अंगों का न्यात ललित कहलाता है। हाथ, पैर, भौंह, नेत्र, अधर आदि सुकुमार अंगों का विन्यास ललित है। 1108 विद्वत : "व्याजादेः प्राप्तकालस्याऽप्यवचनं विहतम्' अर्थात् अवसर प्राप्त होने पर भी मुग्धता, लज्जा आदि गुपों के कारप न बोलना विहत कहलाता है। विलास : "कर्तव्यवशादायाते एव हस्तादिकमपि यद वैचित्र्यं स विलासः' अर्थात कर्तव्यवशात नायक के आने पर ही हत्तादि के कार्यों में जो विचित्रता आती है, वह विलास कहलाता है। प्रकारान्तर से यह सातिशय ललित का ही स्वरूप है। आ. हेमचन्द्र ने “केचित आहुः' कहकर भोजराज के मत से क्रीडित और केलि इन दो अलंकारों को भी सोदाहरप प्रस्तुत किया है।' . केचित बाल्यकुमारयौवनसाधारपविहारविशेष की डितम, क्रीडितमेव च प्रियतम विषय केलि चालंकारौ आहुः। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 428

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