Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 374
________________ 363 केवल उपलक्षपमात्र हैं। इसलिये औचित्य के अनुसार धीरोदुत जादि नायको में अन्य धर्म भी समझ लेने चाहिए।' मध्यम तथा उत्तम के नायकत्व का कथन करने के साथ - साथ आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र यह भी स्पष्टरूपेप लिखते हैं कि इतिवृत्त के अनुरूप 'भाप" और पहसन" में तथा किसी वीथी में हास्यरस पूर्प कथानक होने से वहाँ अधम प्रकृति का भी नायक होता है। पैते - विदूषक, क्लीब, शकार, विट, 'किंकर आदि। ये सब नीच प्रकृति के पात्र होते हैं। आ. वाग्भट द्वितीय ने नायक के धीरोदात्त आदि चार भेद किये हैं। पुनः धीरललित के अनुकूल आदि चार भेद किए हैं। इनके लक्षप आ. हेमचंद्र सम्मत ही हैं। किंतु जहाँ पूर्वाचार्यों ने धीरोदात्तादि चार नायकों के अनुकूल आदि चार-चार उपभेद किए हैं, वहीं वाग्भट द्वितीय ने केवल धीरललित के ही अनुकल आदि चार भेद माने हैं। इस प्रकार नायक-मेदों के मल में आ. भरत तथा दशरूपककार के विभाजन को परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किया है। 1. उपलक्षपमात्र चैतत, तेनोद्धतादीनां ययौचित्यमपरेऽपि धर्मा दृष्टव्या इति। __वही, पृ. 28 2. नीचोडपीशः कथावशात। हि. नाट्यदर्पप 4/7 पूर्वाई . वही, 4/14 + काव्यानुशासन - वाग्भेट, पृ. 61

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