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अनन्वय, उपमेयोपमा, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, तुल्ययोगिता, विभावना, विशेषोक्ति, यथासंख्य, विनोक्ति, भाविक, काव्यलिंग, उदात्त, पर्याय, परिकर, व्याजोक्ति, अन्योन्य, उत्तर, सूक्ष्म, सार, असङ्गति, समाधि, अधिक, प्रत्यनीक, मीलित, एकावली, प्रतीप, सामान्य, विशेष, तद्गुण, अतद्गुण, व्याघात और संकृष्टि आदि।
आ. हेमचन्द्र की मान्यता है कि पुनरुक्ताभास और अर्थान्तरन्यास शब्दार्थोभयगत हैं, तथापि कम्पाः शब्द वैचित्र्य एवं अर्थ वैचित्र्य को उत्कट देखकर प्रथम को शब्दालंकारों मे तथा द्वितीय को अर्थालंकारों में कहा है। परिकर, अपुष्टार्थत्व दोषाभाव रूप और यथासंख्य भग्नप्रक्रमता दोषाभाव रूप है। विनोक्ति तो चमत्कारशून्य है, अतः वह अलंकार रूप में मान्य नहीं है । भाविक अलंकार तो भूत एवं भावी पदार्थों का प्रत्यक्ष करना है जो विष्कम्भक एवं प्रवेशकों के द्वारा प्रदर्शन कराया जा सकने के कारण अभिनेय होने से नाटकादि में उपयोगी है। उदात्त यदि समृद्धिशाली वस्तु लक्षणरूप अवस्था में है तब वह अतिशयोक्ति या स्वभावोक्ति से भिन्न नहीं है। आशी : तो प्रियोक्ति मात्र है, यदि स्नेहातिशय से ऐसी इच्छा ही आशी : है तब चित्तवृत्ति रूप वह प्रधान होने पर भावध्वनि है, गुणीभूत होने पर गुणीभूतव्यंग्य है। प्रत्यनीक, प्रतीप आदि मानोत्प्रेक्षा के प्रकार ही हैं।