Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University

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Page 360
________________ सप्तम अध्याय : नाट्य का समावेश नाटक संस्कृत साहित्य का एक गौरवपूर्ण अंग है। काव्य श्रवणमार्ग ते हृदय को आकृष्ट करता है । परन्तु नाटक नेत्रमार्ग ते हृदय को चमत्कृत करता है। काव्य में रसानुभूति हेतु अर्थ का सम्झना नितान्त आवश्यक होता है पर नाटक में इसकी आवश्यकता नहीं रहती । इसलिये नाटक की समता चित्र से की गई है। जिस प्रकार चित्र भिन्न-भिन्न रंगों के सम्मिश्रण ते सहृदय दर्शकों के चित्र में रस का स्रोत बहाता है, ठीक उसी प्रकार नाटक भी वेशभूषा, नेपथ्य, साजसज्जादि उचित संविधानों से दर्शकों के हृदय पर एक अमिट प्रभाव डालता है तथा उनके हृदय में आनन्द का उदय कराता है। इसीलिये आलंकारिक वामन ने काव्यों में रूपक को विशेष महत्व प्रदान किया है। नाट्य की उत्पत्ति 349 वैदिक काल से ही नाट्यकला के उद्भव का ज्ञान होने लगता है। विश्वसाहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋगवेद में, यत्र-तत्र नाट्यसंबंधी प्रचुर सामुग्री विकीर्प है। उषा के वर्पन पर्संग में उसकी उपमा एक नर्तकी से की गई है। पुरूरवा-उर्वशी, यम-यमी, इन्द्र-इन्द्राणी - वृषाकपि, सरमा-पणि आदि 1. काव्यालंकारसारसूत्र 1 / 330-31

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