________________
344
सक्ष्म, उल्लेख, विशेष, प्रतीप, संसृष्टि और भाविका' वक्रोक्ति का उल्लेख आ. भावदेवतरि ने शब्दालंकारों में भी किया है और अर्थालंकारों में भी। इनका अलंकार - विवेचन अत्यंत संधिप्त है अत: उसके विष्ष्य में कछ विशेष कथनीय नहीं है। अस्तु जैनाचार्यों ने अपने अलंकार - विवेचन में किती एक आचार्य को आदर्श न मानकर, जिस आचार्य के कथन को सम्यक समझा है उन्हें स्वीकार किया है। साथ ही अलंकारों की संख्या के विषय मे इनमें आपस में साम्य नहीं है। तथापि समगत: जैनाचार्यों दारा वर्पित अलंकार स्वरूप व भेदों के मल में आचार्य भामट, दण्डी, रूपयक, भोज व मम्म्ट आदि का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है।
जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रारंभ में अलंकारों का वर्गीकरण शब्दालंकार व अर्थालंकार तक ही सीमित था। तत्पश्चात उभ्यालंकार नामक तृतीय वर्ग माना गया तथा संतुष्टि व संकर - इन दो अलंकारों के मिश्रप को लेकर चतुर्थ मिश्रालंकार की भी कल्पना की गई। कालांतर में अर्थालंकारों के वर्गीकरप के सम्बन्ध में सर्वप्रथम आ. रूट ने एक नवीन दृष्टि से विचार किया, जिसमें अलंकारों के स्वरूप को ध्यान में रखकर उसके मल में विद्यमान सामय, विरोथ, श्रृंखला आदि को आधार
-
-
1. काव्यालंकारसार - 6/1-5 - द्रष्टव्य, वही, 5/1, 6/2