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मात्सी, मागधी, तामलिप्तिका, उंड्री और पौण्ड्री।' वृत्यनुपात के ये बारह भेद भोजसम्मत हैं। आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने इसी प्रकार स्वभावतः, उपचारवशात वीप्सा से आभीक्ष्ण्य से, कषादि धातुओं से
मुल प्रत्यय करने पर उसी धातु के उपपद रहने ते और सम्भम से जो पदों की आवृत्ति होती है, उन्हें लाटानुपात के भेद कहा है। भोज ने इन्हें नामद्विरूक्ति अनुप्राप्त कहा है। इन्होंने संभंगश्लेष के वर्प - पदादि आठ भेदों की तरह अभंगश्लेष के भी आठ भेदों की संभावना की है। साथ ही प्रलेष को अर्थगत भी स्वीकार किया है। इन्होंने पुनरूक्तवदाभास को शब्दालंकार भी कहा है और शब्दार्थालंकार भी।'
आ. वाग्मट द्वितीय ने चित्र, प्रलेष, अनुपात, वक्रोक्ति, यमक और पुनरूक्तवदाभास - इन छ: अलंकारो को शब्दालंकार स्वीकार
2.
ला
1. वही, पृ. 212 - 213
द्रष्टव्य, सरस्वतीकण्ठाभरप, 1/79-80 3. अलंकारमहोदधि, 7/17-18 4. द्रष्टव्य, सरस्वतीकण्ठाभरण, 2/99 5. अभंगश्लेषोऽप्यष्टधैव यथासंभव हयः।
अलंकारमहोदधि, पृ. 222 6. शब्दानामामुखे यस्मिन्नेकार्थत्वावभासनमा पुनरूक्तवदाभासं शब्द - शब्दार्थगामितत्।।
वही, 7/24 . ...