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करते हैं उसी प्रकार यमक, उपमा दि अलंकार काव्य-शरीर को सुशोभित करते हैं।' आनंदवर्धन का अनुसरप करते हुए आचार्य मम्मट ने रमपी के हारादि आभूषपों की भांति काप्य में शब्द और अर्थ का अंगरूप ते कभीकमी उपकार करने वाले अनुपात उपमा दि को अलंकार के रूप में स्वीकार
किया है।
जैनाचार्य वाग्भट प्रथम लिखते हैं कि जिस प्रकार अलंकारों के अभाव मे स्त्री का रूप सुशोभित नहीं होता है, उसी प्रकार अलंकारों से रहित काव्य भी सुशोभित नहीं होता है।
___आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि अंगी रस के जो अंगमत शब्द और अर्थ हैं उनके आश्रित रहने वाले धर्म अलंकार कहलाते हैं। वे अलंकार रस के रहने पर कभी-कभी उपकार करते हैं और कभी-कभी नहीं भी करते। रत का अभाव होने पर तो वे वाच्य वाचक मात्र के चमत्कार में ही सीमित रह जाते हैं। इसलिये आगे वे रसोपकारक अलंकार - प्रकारों का विवेचन करते
1. तमर्थमवलम्बन्ते ये दि. गर्न ते गुपाः स्मृताः। अंइ. गाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्याः कटकादिवत्।।
ध्वन्यालोक 2/6 2. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽइ. गदारेप जातचित्। हारादिवदलइ. कारास्तेऽनुपासोपमादयः।।
__काव्यप्रकाश, 8/67 3 स्त्रीरूपमिव नो भाति त बुवेऽलंछियोध्ययम्।
वाग्भटा. 4/I . 4. अइगाश्रिता अलंकारा। . . . . !
काव्यानुशासन 3.