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कठ अध्याय : अलंकार विवेचन द जैनाचार्य
भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकारों का अत्यधिक महत्व है। इसकी महत्ता इस बात से भी घोषित होती है कि काव्यशास्त्र अलंकारशास्त्र के ही नाम से अभिहित किया जाता रहा है। काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने इसकी महिमा का आख्यान करते हुए इसे वेद का सातवां अंग माना है। उनके अनुसार अलंकार वेद के अर्थ का उपकारक होता है तथा अलंकारों के अभाव में वेदार्थ की अवगति नहीं हो सकती है।'
"अलंकरोति इति अलंकारः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार काव्य के शोभावर्धक तत्वो को अलंकार कहते हैं तथा “अलंक्रियतेऽनेन इति अलंकारः" इस व्युत्पत्ति के आधार पर जिनके द्वारा काप्य अलंकृत किया जाय उसे अलंकार कहते हैं। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार अलंकार काव्य के स्वाभाविक धर्म हैं और द्वितीय के अनुसार अस्वाभाविक या साधनमात्र।
अलंकारों का वास्तविक विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में भी उपलब्ध नहीं होता है। इन्होंने केवल चार अलंकारों - उपमा, रूपक, दीपक और यम का उल्लेख किया है।2 शनैः शनैः अलंकारशास्त्र का विकास होता
1. उपकारकत्वात् अलंकारः सप्तमइगमिति यायावरीयः। ते च तत्स्वरूपपरिज्ञानात वेदार्थानवगतिः।
काव्यमीमांसा द्वितीय अध्याय, पृ. 5 2. नाट्यशास्त्र, 17/43