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जा सकता है। उनमें जो लोग भेद मानते हैं, वह केवल भेड़चालमात्र है।'
उद्भट के परवर्ती आचार्यों ने नित्यता तथा अनित्यता को लेकर गुप तथा अलंकारों में भेद प्रदर्शन किया तथा निष्कर्षस्वरूप गुपों की कसौटी नित्यता व अलंकारों की कसौटी परिवर्तनशीलता स्वीकार की है। सर्वप्रथम री तिवादी आ. वामन ने गुप तथा अलंकारों का भेद करने का प्रयास किया तथा स्पष्टत: लिखा - काव्य के शोभाकारक धर्म गुप हैं और उत्त काव्य-शोभा की वृद्धि करने वाले (चमत्कारक) धर्म अलंकार हैं। उनके अनुसार काव्य में गुपों की स्थिति अपरिहार्य है, परन्तु अलंकारों की स्थिति अपरिहार्य नहीं है।
तदनन्तर ध्वनिवादी आ. आनंदवर्धन ने गुप के स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन किया तथा यह बतलाया कि गुप शब्दार्थ अथवा शब्दविन्यास आदि के धर्म नहीं अपितु काव्य की आत्मा अर्थात रस के धर्म हैं। उन्होंने गुप तथा
1. समवायवृत्त्या शौर्यादयः संयोगकृत्या तु हारादयः गुपालंकारापां भेदः,
ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्तया स्थितिरिति गइडलिकाप्रवाहेपैवेषां भेदः।
काव्यप्रकाश, पृ. 384 2. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः। तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः।
काव्यालंकारसूत्र, 3/1/I-2 3न्यालोक, 2/6