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के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। आ. हेमचन्द्र ने एक और प्रत्युदाहरण प्रस्तुत कर श्रृंगार के प्रतिकूल वर्षों को दिखाया है। यथा
बाले मालेयमुच्चैर्न भवति गगनव्यापिनी नीरदानां । कि त्वं पक्ष्मान्तवान्तैर्मलिनयति मुधा वक्त्रम श्रपवाहैः ।। एषा प्रोत्तमत्तद्वि पकट कषणक्षण्णवन्ध्योपलाभा । दावाग्नेर्व्योम्नि लग्ना मलिनयति दिशां मण्डलं धमलेखा । । ।
यहाँ दीर्घ समास से युक्त, परूष वर्षों वाली रचना विप्रलम्भ श्रृंगार के विरूद्ध है।
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ओजस
चित्त की दीप्ति अर्थात् उज्जवलता या विस्तार में जो कारण हो वह ओजगुण कहलाता है। यह वीर, वीभत्स और रौद्ररस मैं क्रमश: अधिक अतिशयान्वित होता है, अर्थातु वीर की अपेक्षा वीभत्स और वीभत्स की अपेक्षा रौद्ररस में तथा रौद्र के अंगभूत अद्भुत रस में भी ओजगुण क्रमश: अधिक अतिशययुक्त होता है। 2 ओजगुण के विवेचन में भी मम्मट का प्रभाव स्पष्ट है। 3 आ. हेमचन्द्र ने मात्र "तेषामगेऽदसते च
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1. वही, पृ. 290
2. "दी प्तिहेतुरोजो वीरबीभत्सरौद्रेषु क्रमेणाधिकस । दीप्तिरजज्वला, चित्तस्य विस्तार इति यावत् । क्रमेणेति वीराद् बीभत्से ततोऽपि रौद्रे तेषामगेऽसते च सातिशयमोज: । *
काव्यानु, 4/5, कु. पू. 290
3. तुलनीय : काव्यप्रकाश 8/69 व 70 का पूर्वार्द्ध