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________________ 299 के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। आ. हेमचन्द्र ने एक और प्रत्युदाहरण प्रस्तुत कर श्रृंगार के प्रतिकूल वर्षों को दिखाया है। यथा बाले मालेयमुच्चैर्न भवति गगनव्यापिनी नीरदानां । कि त्वं पक्ष्मान्तवान्तैर्मलिनयति मुधा वक्त्रम श्रपवाहैः ।। एषा प्रोत्तमत्तद्वि पकट कषणक्षण्णवन्ध्योपलाभा । दावाग्नेर्व्योम्नि लग्ना मलिनयति दिशां मण्डलं धमलेखा । । । यहाँ दीर्घ समास से युक्त, परूष वर्षों वाली रचना विप्रलम्भ श्रृंगार के विरूद्ध है। 828 ओजस चित्त की दीप्ति अर्थात् उज्जवलता या विस्तार में जो कारण हो वह ओजगुण कहलाता है। यह वीर, वीभत्स और रौद्ररस मैं क्रमश: अधिक अतिशयान्वित होता है, अर्थातु वीर की अपेक्षा वीभत्स और वीभत्स की अपेक्षा रौद्ररस में तथा रौद्र के अंगभूत अद्भुत रस में भी ओजगुण क्रमश: अधिक अतिशययुक्त होता है। 2 ओजगुण के विवेचन में भी मम्मट का प्रभाव स्पष्ट है। 3 आ. हेमचन्द्र ने मात्र "तेषामगेऽदसते च - 1. वही, पृ. 290 2. "दी प्तिहेतुरोजो वीरबीभत्सरौद्रेषु क्रमेणाधिकस । दीप्तिरजज्वला, चित्तस्य विस्तार इति यावत् । क्रमेणेति वीराद् बीभत्से ततोऽपि रौद्रे तेषामगेऽसते च सातिशयमोज: । * काव्यानु, 4/5, कु. पू. 290 3. तुलनीय : काव्यप्रकाश 8/69 व 70 का पूर्वार्द्ध
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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